Movie Nurture:मिस्टर एंड मिसेज़ '55": 1950 के दशक की वह फिल्म जिसने प्यार और पर्दे के पीछे की राजनीति को एक साथ बुना

मिस्टर एंड मिसेज़ ’55”: 1950 के दशक की वह फिल्म जिसने प्यार और पर्दे के पीछे की राजनीति को एक साथ बुना

अगर आपसे कोई पूछे कि 1950 के दशक की वह बॉलीवुड फिल्म कौन सी है जिसमें मधुबाला की मासूमियत, गुरु दत्त का व्यंग्य, और समाज की दोहरी मानसिकता पर एक तीखा प्रहार हो… तो जवाब होगा — “मिस्टर एंड मिसेज़ ’55”। यह फिल्म सिर्फ़ एक रोमांटिक कॉमेडी नहीं, बल्कि उस दौर का आईना है जब भारत आज़ाद तो हो चुका था, मगर औरतों की आज़ादी अब भी “कागज़ों” में उलझी हुई थी। गुरु दत्त ने इसे बनाया था, मगर हैरानी की बात यह है कि यह उनकी उन चंद फिल्मों में से एक है जहाँ वह खुद को “सीरियस आर्टिस्ट” की बजाय एक मस्तमौला कार्टूनिस्ट की तरह पेश करते हैं।

Movie Nurture:मिस्टर एंड मिसेज़ '55": 1950 के दशक की वह फिल्म जिसने प्यार और पर्दे के पीछे की राजनीति को एक साथ बुना

कहानी: प्यार, शादी, और कानून की उलझनें

फिल्म की शुरुआत होती है एक अखबार के कार्टूनिस्ट प्रीतम (गुरु दत्त) से, जो अपने नक़्शों में समाज की हँसी उड़ाता है। उधर, अनीता (मधुबाला) एक अमीर घराने की लड़की है जिसकी आंटी (ललिता पवार) उसे जल्दी से जल्दी शादी के बंधन में बाँधना चाहती हैं। मगर यहाँ ट्विस्ट यह है कि अनीता के पास एक विरासत है जो शादी के बाद उसे तभी मिलेगी, अगर शादी एक साल तक टिकी रहे। यानी, शादी एक “कॉन्ट्रैक्ट” बन जाती है।

प्रीतम और अनीता की मुलाकात एक मजाकिया अंदाज़ में होती है, और धीरे-धीरे यह मजाक प्यार में बदलने लगता है। मगर यहाँ गुरु दत्त की लेखनी ने समाज के उस नक़ाब को उतार फेंका है जो औरतों को “संपत्ति” समझता है। अनीता की दादी और उनके वकील (हारून) का किरदार इसी समाज की उस सोच को दिखाता है जो औरतों की आज़ादी को कानून के पेंचों में फँसा देता है।

मधुबाला: नाज़ुकता और तेज का अनूठा मेल

मधुबाला इस फिल्म में जैसे ज़िंदा हो उठती हैं। एक तरफ़ वह अनीता की मासूमियत और शरारतें हैं, तो दूसरी ओर उसकी आँखों में छुपा वह दर्द जो समझती है कि उसकी ज़िंदगी दूसरों के फैसलों की गिरफ्त में है। उनका वह डायलॉग — “मैं शादी करूँगी, मगर मेरी शर्तों पर!” — उस दौर के लिए एक क्रांतिकारी वाक्य था। वहीं, गुरु दत्त का प्रीतम बिना किसी “हीरो” वाले अंदाज़ के सामने आता है। वह भद्दे जोक्स मारता है, ग़लतियाँ करता है, और अनीता को इम्प्रेस करने की कोशिश में बार-बार फेल होता है… मगर यही उसे रियल बनाता है।

संगीत: रूमानियत की बुनियाद

ओ.पी. नय्यर का संगीत इस फिल्म की रूह है। “जाने कहाँ मेरा जिगर गया जी” जैसा गीत सुनते ही दिल में एक हल्की सी टीस पैदा हो जाती है। गीता दत्त की आवाज़ और मधुबाला के चेहरे के इमोशन्स ने इस गीत को अमर बना दिया। वहीं, उधर तुम हसीं हो, इधर में जवान जैसा प्लेफुल सॉन्ग प्रीतम और अनीता के प्यार को हल्के-फुल्के अंदाज़ में बयान करता है।

व्यंग्य: समाज की फुल्टू तस्वीर

गुरु दत्त ने इस फिल्म में “कॉमेडी” के जरिए समाज पर कुठाराघात किया है। मिसाल के तौर पर, न्यूज़पेपर ऑफिस के दृश्यों में एडिटर (ओम प्रकाश) का किरदार, जो हर बात पर चिल्लाता है — “ये क्या बकवास लिखा है? मेरा अखबार इंटेलेक्चुअल्स के लिए नहीं, आम आदमी के लिए है!” — यह उस मीडिया पर करारा व्यंग्य है जो “आम आदमी” के नाम पर फ़ालतू की सनसनी फैलाता है।

वहीं, कोर्ट के दृश्यों में वकील (नासिर हुसैन) का यह डायलॉग — “हिंदू लॉ के मुताबिक, औरत को हमेशा पुरुष के संरक्षण में रहना चाहिए!” — उस पितृसत्तात्मक सोच को बेनकाब करता है जो औरतों को कभी “बेटी”, कभी “पत्नी”, कभी “माँ” के रोल में कैद कर देता है।

Movie Nurture: मिस्टर एंड मिसेज़ '55": 1950 के दशक की वह फिल्म जिसने प्यार और पर्दे के पीछे की राजनीति को एक साथ बुना

दर्शकों पर असर: तब और अब

1955 में रिलीज़ होते ही यह फिल्म चर्चा में आ गई। कुछ ने इसे “हल्की-फुल्की” कॉमेडी कहा, तो कुछ ने इसकी सामाजिक टिप्पणी को सराहा। मगर आज, 70 साल बाद, यह फिल्म और भी प्रासंगिक लगती है। जब हम देखते हैं कि आज भी महिलाओं के संपत्ति के अधिकारों पर बहस होती है, तो अनीता का किरदार एक सवाल बनकर खड़ा हो जाता है: “क्या औरत की आज़ादी सिर्फ़ कानून के पन्नों तक सीमित है, या उसे ज़िंदगी में भी बराबरी चाहिए?”

कमज़ोरियाँ: कहानी का ढीला पड़ना

फिल्म बिल्कुल बेदाग़ नहीं है। दूसरे हाफ में, जब प्रीतम और अनीता के बीच गलतफहमियाँ बढ़ती हैं, तो कहानी थोड़ी ट्रैक खो देती है। कुछ दृश्य (जैसे प्रीतम का अखबार वाला दोस्त और उसकी प्रेमिका) फिल्म की मुख्य धारा से कटे हुए लगते हैं। मगर गुरु दत्त की डायरेक्शन और मधुबाला का अभिनय इन खामियों को ढक देते हैं।

फिल्म का सबसे यादगार दृश्य

वह मोमेंट जब अनीता, शादी के कॉन्ट्रैक्ट को फाड़कर कहती है — “मैंने यह शादी पैसे के लिए नहीं, प्यार के लिए की थी!” — यह सीन न सिर्फ़ फिल्म का क्लाइमैक्स है, बल्कि उस औरत का विद्रोह भी है जो समाज के बनाए नियमों को तोड़कर अपनी पहचान चुनती है।

आखिरी बात: क्यों देखें “मिस्टर एंड मिसेज़ ’55”?

अगर आपको लगता है कि पुरानी फिल्में धीमी और बोरिंग होती हैं, तो यह फिल्म आपकी सोच बदल देगी। यहाँ है एक ऐसी लव स्टोरी जो गानों, हँसी और संवादों के जरिए आपको 1950 के दशक में ले जाएगी, मगर उसकी सोच आज के दौर से जुड़ी हुई है। गुरु दत्त और मधुबाला की जोड़ी स्क्रीन पर जादू बिखेरती है, और ओ.पी. नय्यर के गाने दिल को छू लेते हैं।

फिल्म का संदेश साफ़ है: प्यार कानूनों के बंधन में नहीं, दिलों की धड़कन में बसता है। और शायद यही वजह है कि आज भी, जब हम टिंडर और डेटिंग ऐप्स के ज़माने में जी रहे हैं, “मिस्टर एंड मिसेज़ ’55” हमें याद दिलाती है कि प्यार की असली कीमत उसकी “सादगी” में है।

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