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Home Hindi

1980s की मलयालम फिल्मों में राजनीतिक और सामाजिक विषयों का गहरा असर

by Sonaley Jain
April 29, 2025
in Hindi, Indian Cinema, Malayalam, old Films, South India, Top Stories
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Movie Nurture: मलयालमसिनेमा
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1980 का दशक मलयालम सिनेमा के इतिहास में एक स्वर्णिम युग के रूप में याद किया जाता है। यह वह दौर था जब फिल्में सिर्फ मनोरंजन का जरिया नहीं, बल्कि समाज का आईना बनकर उभरीं। राजनीतिक उठापटक, सामाजिक बदलाव, और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की हलचलें—ये सभी तत्व पर्दे पर ऐसे उतरे मानो कोई कैनवास हो, जिस पर निर्देशकों ने अपने समय की पीड़ा, उम्मीद, और विरोध के रंग भर दिए हों। यह वह दशक था जब मलयालम सिनेमा ने “मास” और “क्लास” के बीच की खाई को पाटकर, आम आदमी की आवाज बनने का साहस दिखाया।

Movie Nurture: मलयालमसिनेमा

भूमिका: केरल का वह दशक जब समाज और सिनेमा एक हो गए

1980 का केरल राजनीतिक रूप से उबल रहा था। वामपंथी दलों का प्रभाव चरम पर था, किसान आंदोलनों ने ज़मीन सुधारों को जन्म दिया था, और शिक्षा के प्रसार ने समाज में नए विचारों की बयार छोड़ी थी। इसी दौरान सिनेमा ने भी अपनी ज़िम्मेदारी समझी—वह जनता के सपनों और संघर्षों को पर्दे पर उतारने लगा। फिल्मकारों ने न सिर्फ़ कहानियाँ सुनाईं, बल्कि सवाल उठाए: “सत्ता किसके हाथ में है?”, “औरत की आज़ादी की कीमत क्या है?”, “जाति के बंधन कब टूटेंगे?”

इन सवालों के जवाब ढूंढते हुए, 80s की फिल्मों ने केरल के सामाजिक ताने-बाने को बेध डाला। यहाँ उन राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर एक नज़र, जिन्होंने इस दशक की फिल्मों को अमर बना दिया।

1. वामपंथी विचारधारा: सिनेमा में क्रांति की चिंगारी

केरल दुनिया का पहला ऐसा राज्य था जहाँ 1957 में वामपंथी सरकार चुनी गई। 1980 तक यह विचारधारा समाज के हर कोने में पैठ चुकी थी। फिल्मकारों ने इसका इस्तेमाल कहानियों की रीढ़ बनाने में किया।

  • उदाहरण: पद्मराजन की ‘थोवानाथुम्बिकल’ (1985) में नायक एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता है, जो गाँव की सामूहिक खेती को बचाने के लिए संघर्ष करता है। यह फिल्म सिर्फ़ एक प्रेम कहानी नहीं, बल्कि सामूहिकता बनाम पूँजीवाद की लड़ाई का दस्तावेज़ है।

  • प्रभाव: ऐसी फिल्मों ने युवाओं को राजनीति में सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया। ग्रामीण केरल में “सिनेमा हॉल” चर्चा का केंद्र बन गए, जहाँ मज़दूर और छात्र फिल्मों के संवादों को अपने संघर्षों से जोड़ते थे।

लेकिन यह विचारधारा सिर्फ़ पर्दे तक सीमित नहीं थी। निर्देशक खुद अक्सर वामपंथी आंदोलनों से जुड़े होते थे। एडूर गोपालकृष्णन जैसे फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों में शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाई, चाहे वह ज़मींदारी प्रथा हो (‘एलिप्पठयम’, 1981) या सामाजिक पाखंड (‘मठिलुकल’, 1985)।

2. स्त्रीवादी संघर्ष: औरत की आवाज़ बनी फिल्मे

1980 का दशक केरल में महिलाओं के लिए विरोधाभासों भरा था। एक तरफ़ राज्य में साक्षरता दर सबसे ऊँची थी, दूसरी तरफ़ पितृसत्ता की जड़ें गहरी थीं। मलयालम सिनेमा ने इस द्वंद्व को बेहद संवेदनशीलता से उकेरा।

Mmovie Nurture:मलयालमसिनेमा

  • चरित्रों का बदलता स्वरूप: पारंपरिक “बलिदानी नायिका” की जगह अब स्वाभिमानी औरतें पर्दे पर आईं। के.जी. जॉर्ज की ‘यवनिका’ (1982) में श्रीविद्या का किरदार एक ऐसी पत्नी है जो अपने पति की मानसिक प्रताड़ना के खिलाफ़ खड़ी होती है। यह फिल्म उस दौर में एक सनसनी थी, जब घरेलू हिंसा पर खुलकर बात नहीं होती थी।

  • कामकाजी महिलाओं का प्रतिनिधित्व: पद्मराजन की ‘नामुक्कू पार्कान मुन्थिरी थोप्पुकल’ (1986) में रेवती का रोल एक नर्स का है, जो अपने पेशेवर जीवन और व्यक्तिगत इच्छाओं के बीच संतुलन ढूंढती है। यह फिल्म उस समाज को चुनौती देती है जो औरतों को “या तो करियर या परिवार” चुनने पर मजबूर करता था।

इन फिल्मों ने न सिर्फ़ स्त्री-पुरुष असमानता को उजागर किया, बल्कि महिला दर्शकों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा दी।

3. जाति व्यवस्था: पर्दे पर उठते सवाल

केरल को प्रगतिशील माना जाता है, लेकिन 1980 के दशक तक भी जाति आधारित भेदभाव गहराई से मौजूद था। मलयालम फिल्मों ने इस मुद्दे को बिना लाग-लपेट के उठाया।

  • दलित चरित्रों की मुखरता: टी.वी. चंद्रन की ‘पिरवी’ (1989) एक दलित परिवार की कहानी है, जो सामाजिक बहिष्कार और गरीबी से जूझता है। फिल्म का नायक, अनपढ़ होते हुए भी, अपने बच्चों को शिक्षित करने का संकल्प लेता है। यह केरल के दलित आंदोलनों की झलक थी, जहाँ शिक्षा को सशक्तिकरण का हथियार माना गया।

  • सवर्ण समाज की आलोचना: हरीहरन की ‘पनचवादि पलावुकल’ (1984) में एक ब्राह्मण परिवार की कठोर रूढ़ियों को दिखाया गया है, जो अपनी ही बेटी को उसके दलित प्रेमी से शादी करने पर घर से निकाल देता है।

ये फिल्में सिनेमा हॉल्स में बहसों को जन्म देती थीं। कई बार तो दर्शकों ने पर्दे पर पात्रों से सीधे बहस करना शुरू कर दिया—”यह समाज कब बदलेगा?”

4. शहरीकरण और पलायन: टूटते परिवार, बिखरते सपने

1980 का दशक केरल में पलायन का भी दौर था। खाड़ी देशों में नौकरी की तलाश में जाते युवाओं की कहानियाँ फिल्मों की पृष्ठभूमि बनीं।

  • एकल परिवारों का उदय: सथ्यन अंतिक्कड़ की ‘रजनीगंधा’ (1983) एक ऐसे युगल की कहानी है जो शहर में रहते हुए भी अकेलेपन से जूझता है। यह फिल्म उस पीढ़ी की मानसिकता को दर्शाती है जो गाँव की जड़ों से कटकर शहरी जीवन के दबाव में खो रही थी।

  • प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा: ‘चिदंबरम’ (1985) में एक नौकरी की तलाश में दुबई गया युवक अपने परिवार से दूर होकर टूट जाता है। यह फिल्म उस मानवीय लागत को दिखाती है जो आर्थिक विकास के पीछे छिपी होती है।

इन फिल्मों ने केरल के सामाजिक ढाँचे में आ रहे बदलाव को रेखांकित किया—जहाँ पैसा सुख खरीद नहीं पा रहा था।

Movie Nurture: मलयालमसिनेमा

5. धर्म और रूढ़िवाद: सिनेमा की निडर आलोचना

केरल की बहुलवादी संस्कृति के बावजूद, 1980 के दशक में सांप्रदायिक तनाव के बीज मौजूद थे। फिल्मकारों ने धर्म के नाम पर फैलाए जा रहे भय और पाखंड को बेनकाब किया।

  • ईसाई समुदाय पर प्रहार: ‘अमृतांतरम’ (1987) एक सीरियन क्रिश्चियन परिवार की कहानी है, जहाँ चर्च के नियमों का पालन करते-करते परिवार टूट जाता है। फिल्म ने धार्मिक संस्थानों द्वारा थोपी गई “मर्यादाओं” पर सवाल खड़े किए।

  • हिंदू रूढ़िवाद की तल्ख छवि: ‘वैशाख’ (1988) में एक मंदिर का पुजारी अपने ही बेटे को दलित लड़की से प्रेम करने पर समाज के डर से उसका साथ छोड़ देता है। यह फिल्म धर्म के नाम पर होने वाले नैतिक ढोंग को उजागर करती है।

इन फिल्मों ने दर्शकों को झकझोरा—क्या धर्म इंसानियत से ऊपर है?

निष्कर्ष: वह दशक जिसने सिनेमा को सामाजिक दस्तावेज़ बना दिया

1980 की मलयालम फिल्में सिर्फ़ कलाकृति नहीं थीं—वे समाज का इतिहास थीं। इन्होंने राजनीति को जनता की भाषा में समझाया, औरतों को उनकी ताकत का एहसास कराया, और जाति के घावों पर मरहम रखने की कोशिश की। आज भी जब हम ‘चिदंबरम’ या ‘एलिप्पठयम’ देखते हैं, तो लगता है मानो केरल का वह दशक सजीव हो उठा हो।

ये फिल्में हमें याद दिलाती हैं कि सिनेमा की असली ताकत उसकी मनोरंजन करने की क्षमता नहीं, बल्कि समाज को बदलने का साहस है। और 1980 का दशक इस साहस का सबसे चमकदार उदाहरण बनकर इतिहास में अमर हो गया।

जैसा कि मशहूर निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन ने कहा था, “फिल्में समाज का चेहरा नहीं, उसकी आत्मा दिखाती हैं।” और 80s की मलयालम फिल्मों ने यह आत्मा बिना किसी मेकअप के, बेधड़क होकर दिखाई।

Tags: 1980 की फिल्मेंभारतीय सिनेमामलयालम फिल्म इतिहासमलयालम सिनेमासामाजिक विषय
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