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Home 1970

कलकत्ता 71 (1972): जब सिनेमा ने दिखाया समाज का आईना

by Sonaley Jain
April 16, 2025
in 1970, Bengali, Films, Hindi, Movie Review, old Films, Top Stories
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Movie Nurture: कलकत्ता 71 (1972): जब सिनेमा ने दिखाया समाज का आईना
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1971 का साल, जब पूर्वी पाकिस्तान में बांग्लादेश की मुक्ति संग्राम की आग भड़क चुकी थी, और पश्चिम बंगाल की सड़कों पर नक्सलवादी आंदोलन का तूफान था। ऐसे उथल-पुथल भरे माहौल में मृणाल सेन ने “कलकत्ता 71” बनाई—एक फिल्म जो सिनेमाई कहानी नहीं, बल्कि समाज के घावों पर एक ऐसी नज़र थी, जिसे आज भी लोग देखकर सहम जाते हैं । यह फिल्म सिर्फ़ पर्दे पर नहीं उतरी, बल्कि दर्शकों के दिल-दिमाग पर छा गई।

कहानी : चार कहानियों का एक सफर

“कलकत्ता 71” कोई सीधी नैरेटिव नहीं है, बल्कि चार अलग-अलग दौर की कहानियों का संग्रह है, जो एक फ्रेम स्टोरी से जुड़ती हैं। यह फ्रेम है कलकत्ता के एक मकान में छुपे युवा क्रांतिकारियों का, जो पुलिस से बचते हुए अपने विचारों पर चर्चा करते हैं। हर कहानी उनकी बहस का जवाब है:

Movie Nurture: कलकत्ता 71 (1972): जब सिनेमा ने दिखाया समाज का आईना

  1. 1933 – अकाल की मार: एक गरीब परिवार भूख से तड़पता है, जबकि ज़मींदार अनाज को सड़ने देता है। यहाँ भूख सिर्फ़ पेट की नहीं, व्यवस्था के खिलाफ़ चीख है।
  2. 1943 – बंगाल का महाविनाश: भुखमरी में एक माँ अपनी बेटी को बेचने को मजबूर है। यह कहानी “मनुष्यता के पतन” की दस्तक है।
  3. 1953 – छात्र आंदोलन: एक युवा छात्र नेतृत्व करता है, मगर सिस्टम उसे कुचल देता है। यहाँ आशा और निराशा का टकराव है।
  4. 1971 – वर्तमान की बेचैनी: नक्सलवादी युवाओं की टोली, जो हिंसा को जवाब मानती है।

फिल्म का सबसे मार्मिक पल: जब 1943 की कहानी में माँ अपनी बेटी से कहती है— “तू मर जा, तेरे मरने से कम से कम तेरा भाई तो जीएगा।” यह डायलॉग सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

मृणाल सेन की दिशा: कैमरा जो सवाल उठाता है

मृणाल सेन ने इस फिल्म में डॉक्यूमेंट्री और फिक्शन का अनोखा मिश्रण किया।

  • शैली: कुछ दृश्यों में हैंडहेल्ड कैमरे का इस्तेमाल कर फिल्म को रॉ-रियलिज्म दिया गया। युद्ध और भूख के दृश्य ऐसे लगते हैं मानो आप खबरें देख रहे हों।
  • प्रतीकात्मकता: एक दृश्य में टूटी हुई मूर्तियाँ दिखाई जाती हैं—समाज के टूटते मूल्यों का संकेत।
  • ध्वनि का जादू: पृष्ठभूमि में सुनाई देती हड़तालों की आवाज़, भीड़ के नारे… ये सब दर्शक को उस दौर में खींच लेते हैं।

रोचक तथ्य: फिल्म के कुछ सीन असली प्रदर्शनों की फुटेज से लिए गए थे, जिससे यह वृत्तचित्र जैसी प्रामाणिक लगती है।

संगीत और ध्वनि: विरोध का स्वर

फिल्म में पारंपरिक संगीत नहीं, बल्कि ध्वनियों का कोलाज है:

  • जनसभाओं के नारे: “इन्कलाब ज़िंदाबाद!” और “भूख है तो बंदूक उठाओ!” जैसे नारे कानों में गूँजते रह जाते हैं।
  • प्राकृतिक आवाज़ें: बारिश की फुहारें, भूखे बच्चों के रोने की आवाज़—ये सब मिलकर एक सिनफोनिक कविता बनाते हैं।
  • मौन का प्रयोग: कुछ दृश्यों में पूरी तरह खामोशी है, जो दर्शक को असहज कर देती है।

संगीत की भूमिका: यहाँ संगीत मनोरंजन नहीं, बल्कि विरोध का औज़ार है।

राजनीतिक संदेश: सिनेमा या प्रचार?

“कलकत्ता 71” पर अक्सर यह आरोप लगा कि यह नक्सलवादी विचारधारा को बढ़ावा देती है। मगर मृणाल सेन का इरादा सिर्फ़ सवाल उठाना था:

  • क्या हिंसा समाधान है?
  • क्या व्यवस्था परिवर्तन बिना खून बहाए मुमकिन है?
  • क्या इतिहास खुद को दोहराता है?

फिल्म किसी जवाब पर नहीं, बल्कि इन सवालों पर रुकती है। जैसे कथावाचक कहता है: “इतिहास एक चक्र है, जो हमें बार-बार उसी जगह लाता है।”

Movie Nnurture: कलकत्ता 71 (1972): जब सिनेमा ने दिखाया समाज का आईना

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: बंगाल का दर्द

फिल्म को समझने के लिए 1971 के बंगाल को जानना ज़रूरी है:

  • नक्सलवादी आंदोलन: गरीब किसानों और युवाओं का विद्रोह, जो ज़मींदारी प्रथा के खिलाफ़ था।
  • बांग्लादेश युद्ध: शरणार्थियों का पलायन और राजनीतिक अस्थिरता।
  • आर्थिक विषमता: अमीरों के महल और गरीबों की झोपड़ियों का साथ-साथ होना।

फिल्म इन सभी पहलुओं को छूती है, मगर किसी का पक्ष नहीं लेती।

विरासत: आज भी प्रासंगिक क्यों?

“कलकत्ता 71” आज भी इसलिए चुभती है क्योंकि इसके सवाल अधूरे हैं:

  • भूख और गरीबी: आज भी भारत में अनाज की बर्बादी और भूखे पेट सोते बच्चे हैं।
  • युवाओं की बेचैनी: बेरोज़गारी और सिस्टम के प्रति निराशा आज भी विद्रोह को जन्म देती है।
  • राजनीतिक हिंसा: नक्सलवादी समस्या आज भी देश के कई हिस्सों में मौजूद है।

आलोचकों की नज़र में: 1972 में फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, मगर कट्टरपंथी समूहों ने इसकी आलोचना की।

अंतिम शब्द: सिनेमा जो इतिहास बन गया

“कलकत्ता 71” सिर्फ़ फिल्म नहीं, एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। यह हमें याद दिलाती है कि सिनेमा का काम सिर्फ़ कहानी सुनाना नहीं, बल्कि समाज से सवाल करना है। मृणाल सेन ने जो दर्पण 1971 में उठाया था, उसमें आज का भारत भी साफ़ दिखता है।

फिल्म के अंत में कथावाचक पूछता है— “क्या हम इतिहास से सीखते हैं?” शायद इसका जवाब हमारे आज के कलकत्ते में छुपा है…

Tags: भारतीय सिनेमामृणाल सेन
Sonaley Jain

Sonaley Jain

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