1930s… का वो दशक, जब बॉलीवुड “बॉलीवुड” नहीं, “हिंदी सिनेमा” था। चमक-दमक नहीं, संघर्ष था। पर्दे पर जादू दिखता था, पीछे पसीना बहता था। कैमरे चलते थे, तो स्टूडियो में बिजली कट जाती थी। एक्टर नहीं, कलाकार थे। जिन्हें पैसों के लिए नहीं, प्यार के लिए फिल्में करनी पड़ती थीं।
आलम आरा और आवाज़ का जादू:
1931 में अर्देशिर ईरानी ने “आलम आरा” बनाई। पहली बोलती फिल्म। लोग हैरान थे! जब पर्दे पर पात्र बोलते दिखे। मगर ये जादू आसान नहीं था। रिकॉर्डिंग के लिए माइक छिपाने पड़ते थे। एक दृश्य में गाना फंस गया? पूरा सेट दोबारा बनाना पड़ता था। कोई रीटेक नहीं, कोई टेक्नोलॉजी नहीं। बस जुनून।
स्टूडियो का युग: बंबई टॉकीज और प्रभात
1934 बंबई टॉकीज की स्थापना। हिमांशु राय और देविका रानी की जोड़ी ने रचा इतिहास। देविका सिनेमा की पहली “स्टाइल आइकन” बनीं। उनकी हिम्मत देखो—एक फिल्म में उन्होंने चुंबन किया था ! समाज ने बहुत नाक-भौं सिकोड़ी, मगर दर्शकों को उनकी अदाकारी भा गयी। वहीं, पुणे का प्रभात स्टूडियो मिथकों को जीवंत करता था। “संत तुकाराम” (1936) जैसी फिल्मों ने आध्यात्मिकता और सिनेमा का मेल किया।
औरतों का संघर्ष:
फिल्मों में औरतें? समाज की नजरों में “बदनामी”। उस समय लड़कियों के परिवार वाले शूटिंग के लिए मना करते। कई एक्ट्रेस अलग नामों से काम किया करतीं थीं । सुलोचना (रूबी मायर्स) जैसी अभिनेत्रियों ने हिम्मत दिखाई। मगर पर्दे के पीछे उनकी आँखों में डर होता था—कल कोई समाज में चेहरा न दिखाएगा।
टेक्नोलॉजी: अंधेरे में टटोलते हाथ
कलर फिल्में? नामुमकिन था – 1937 में “किसान कन्या” आई, पहली रंगीन फिल्म। मगर तकनीक इतनी कच्ची कि रंग हर शॉट में अलग नजर आते थे। स्पेशल इफेक्ट्स? हाथ से पेंट किए गए बैकग्राउंड थे। आग का दृश्य बनाना हो तो कागज जलाए जाते थे। मगर खतरा? हर शॉट के साथ होता था।
गाने: बिना प्लेबैक के ज़िंदगी
प्लेबैक सिस्टम नहीं था। एक्टर को गाना होता तो लाइव ऑर्केस्ट्रा बजता था। एक बार गलती हुई? पूरा बैंड रुक जाता था। फिर से शूटिंग रीसेट होती। किशोर कुमार और लता मंगेशकर तो दूर की बात, गायक-अभिनेता खुद ही होते थे। कुंदन लाल सहगल की आवाज़ में जादू था—वो मदहोश कर देने वाला सुर… पर उनकी शराब की लत भी उनके साथ चलती थी।
सेंसरशिप और देशभक्ति:
अंग्रेजी सरकार की नजर – अगर फिल्मों में देशभक्ति के इशारे मिले तो वह बैन हो जाती थी ! फिल्मकारों ने चाल चली—मिथकों के पात्रों के ज़रिए संदेश दिए। “धरती माता” (1938) जैसी फिल्मों में गरीबी और स्वतंत्रता की चिंगारी छुपी थी।
वो चेहरे जो इतिहास बने:
दादासाहेब फाल्के—सिनेमा के पितामह। उनकी आँखों ने देखा था सिनेमा का सूरज डूबते । 1944 में उनका निधन हुआ, मगर 1930s में वो गुमनामी के अंधेरे में खो चुके थे। वहीं, अशोक कुमार—डॉक्टर बनने आए थे मुंबई, मगर किस्मत ने बना दिया सितारा।
कहानी अधूरी है…
1930s की फिल्में आज नहीं दिखतीं। कई फिल्मों के रील खो गए। जो बची हैं, वो खंडहर हो चुकी। मगर ये दशक सिनेमा की नींव का पत्थर है। जहाँ पर्दे के पीछे लोगों ने सपने बोए। बिना स्टारडम, बिना वैभव। बस एक धुन—”चलता है”।
आज का बॉलीवुड शायद ये कहानियाँ भूल चुका। मगर जब भी पुराने सिनेमा हॉल की चिकनी सीटों पर कोई धूल साफ करे, शायद ये आवाज़ें गूँज उठें—”एक्टर कट! लाइट्स ऑफ!”