सोचिए, सिनेमा हॉल में अंधेरा होता है। सफेद पर्दे पर चलचित्र नाचने लगते हैं, लेकिन कोई आवाज़ नहीं होती। न डायलॉग, न बैकग्राउंड म्यूजिक का रेकॉर्डिंग (हालांकि लाइव संगीत होता था)। ऐसे में कैसे पता चलता था कि कोई किरदार बूढ़ा है या जवान, शैतान है या फरिश्ता, गरीब है या अमीर? जवाब छिपा था उनके चेहरे पर! साइलेंट फिल्मों का दौर (1910s-1920s) मेकअप कलाकारों के जादू का स्वर्णिम युग था। ये मेकअप सिर्फ खूबसूरती के लिए नहीं, बल्कि कहानी कहने का सबसे ताकतवर हथियार था।
क्यों था मेकअप इतना ज़रूरी? बिना आवाज़ के चेहरा ही था आवाज़!
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एक्सप्रेशन बढ़ाना: बिना डायलॉग के, एक्टर को अपने चेहरे के हाव-भाव से ही सारी भावनाएं – गुस्सा, प्यार, डर, हैरानी – दर्शकों तक पहुँचानी होती थी। मेकअप इन भावों को और भी साफ, एक्सैजरेटेड (बढ़ा-चढ़ाकर) और दूर से दिखने लायक बनाता था।
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किरदार को परिभाषित करना: सिर्फ देखकर ही पता चल जाना चाहिए था कि ये हीरो है या विलेन, नौकर है या राजा। मेकअप और हेयरस्टाइल किरदार की पहचान बनाते थे।
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उम्र दिखाना: युवा से बूढ़ा बनाना हो, या फिर बीमार दिखाना हो – सब मेकअप के भरोसे!
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लाइटिंग की चुनौती: उस ज़माने की फिल्म स्टॉक बहुत सेंसिटिव नहीं होती थी। खासकर ऑर्थोक्रोमैटिक फिल्म (जो लाल रंग को काला दिखाती थी!) के सामने मेकअप को ऐसा होना था जो तेज़ लाइट्स में भी किरदार के फीचर्स को डिफाइन करे और अजीब न लगे।
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दूरी का असर: बड़े सिनेमा हॉल में पिछली सीट पर बैठा दर्शक भी एक्टर के चेहरे के भाव पढ़ सके, इसके लिए मेकअप को थोड़ा ‘ओवर द टॉप’ होना पड़ता था, वैसे ही जैसे थिएटर में होता है।
तो कैसे होता था ये जादू? साइलेंट एरा के मेकअप के राज:
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बेस का बोलबाला: ग्रीसपेंट (Greasepaint) का ज़माना:
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आजकल की तरह लिक्विड फाउंडेशन नहीं होता था। गाढ़ी, मक्खन जैसी ग्रीसपेंट स्टिक्स चलन में थीं। ये सस्ती और आसानी से उपलब्ध थीं।
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रंगों की अजीब दुनिया: ऑर्थोक्रोमैटिक फिल्म के कारण सबसे बड़ी चुनौती थी चेहरे का नेचुरल टोन बरकरार रखना।
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हल्की स्किन: पीले या गुलाबी टोन वाली ग्रीसपेंट इस्तेमाल होती थी। सफेद रंग भी खूब चलता था, खासकर महिलाओं के लिए, ताकि चेहरा चमकता हुआ और एक्सप्रेसिव दिखे।
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गोरी स्किन पर गहरे रंग: अगर किसी गोरे एक्टर को डार्क स्किन का किरदार निभाना हो (जो अक्सर होता था, जिस पर बहुत बाद में सवाल उठे), तो वे डार्क ब्राउन या यहाँ तक कि ब्लैक ग्रीसपेंट का इस्तेमाल करते! फिल्म में ये हल्के भूरे या ग्रे दिखते।
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लाल = काला सावधान!: ऑर्थोक्रोमैटिक फिल्म लाल रंग को काला दिखाती थी। इसलिए लाल रंग का मतलब था ‘ब्लैकआउट’! होठों पर लाल लिपस्टिक लगाने से वो फिल्म पर काली पट्टी जैसी दिखती। इसका समाधान था…
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ब्लू लिप्स का राज: होठों को फिल्म पर दिखाने के लिए मेकअप आर्टिस्ट नीले या गहरे बैंगनी रंग की लिपस्टिक लगाते थे! फिल्म पर ये एक साफ, हल्की सी सीमा या गहरे रंग के रूप में दिखती थी, जो काली नहीं लगती थी। ये सबसे चौंकाने वाला ट्रिक था!
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पाउडर की बारिश: सेट करने के लिए:
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ग्रीसपेंट चिपचिपी और चमकदार होती थी। तेज़ स्टूडियो लाइट्स (जो बहुत गर्म होती थीं) के नीचे ये पसीने से बह सकती थी या बहुत ज्यादा चमकने लगती थी।
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इसलिए ग्रीसपेंट लगाने के बाद भारी मात्रा में फेस पाउडर लगाया जाता था। यह पाउडर मेकअप को सेट करता, चमक कम करता और चेहरे को एक मैट, स्मूद फिनिश देता था।
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ज्यादातर रिफाइंड टैल्कम पाउडर या राइस पाउडर का इस्तेमाल होता था।
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आँखें: खिड़की से दिखती थी आत्मा (और एक्टिंग!):
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आँखों को हाइलाइट करना सबसे ज़रूरी था, क्योंकि भावनाएं वहीं से झलकती थीं।
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आईलाइनर (Kohl): आँखों के ऊपर और नीचे गहरा आईलाइनर (अक्सर काजल जैसा) लगाया जाता था ताकि आँखें बड़ी, डिफाइंड और एक्सप्रेसिव दिखें। यह नाटकीय प्रभाव के लिए ज़रूरी था।
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आईब्रो: भावनाओं का पैमाना: आईब्रो सबसे शक्तिशाली टूल था। उन्हें मोटा काला करके, अलग-अलग शेप देकर किरदार की भावना दिखाई जाती थी।
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विलेन: तिरछी, नुकीली, मिली हुई (यूनीब्रो) भौहें।
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हीरो: सीधी, भरपूर भौहें।
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हीरोइन: पतली, ऊँची उठी हुई, घुमावदार भौहें।
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बूढ़े किरदार: लटकी हुई या बिखरी हुई भौहें।
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आईशैडो: इस्तेमाल होता था, लेकिन सूटल। डार्क शेड्स आँखों को गहरा दिखाने के लिए।
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होठ: ब्लू से काम चलता था!
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जैसा ऊपर बताया, लाल रंग नहीं चलता था। इसलिए गहरे गुलाबी, नीले, बैंगनी या यहाँ तक कि ब्लैक लिप कलर चलते थे, ताकि फिल्म पर होठों का आकार साफ दिखे, वो ‘गायब’ न हों। महिलाएं अक्सर छोटे, गोल “कपिड्स बो” शेप में लिपस्टिक लगाती थीं।
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5. बूढ़ा बनाना (Aging):
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झुर्रियां: गहरे भूरे या ग्रे ग्रीसपेंट से चेहरे पर लकीरें खींची जाती थीं (जैसे माथे पर, आँखों के बाहर, गालों पर)। फिर इन लकीरों के ऊपर से हल्के रंग की ग्रीसपेंट लगाकर उन्हें गहरा किया जाता था।
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झाइयां और धब्बे: गहरे रंग के स्पॉट्स लगाए जाते थे।
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बुढ़ापे का सफेदपन: सफेद या ग्रे पाउडर या ग्रीसपेंट से बालों, भौहों, दाढ़ी-मूंछ को सफेद किया जाता था। कभी-कभी सफेद विग भी पहनाई जाती थी।
6. विशेष प्रभाव (Special Effects Makeup):
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डरावने किरदार (जैसे Frankenstein): ये सबसे मुश्किल थे। जैक पीयर्स जैसे मेकअप जीनियस ने कई तकनीकें ईजाद कीं।
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बिल्डिंग: चेहरे पर अलग-अलग आकार देने के लिए प्लास्टिक वैक्स, कॉटन, रबर, यहाँ तक कि ड्राय स्पंज का इस्तेमाल होता था। इन्हें चिपकाकर उन पर मेकअप किया जाता था। बोरिस कार्लॉफ़ के फ्रैंकनस्टाइन के सिर पर स्क्वेयर शेप देने के लिए उनके जूते के तले का रबर इस्तेमाल हुआ था!
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स्कार्स और जख्म: वैक्स या रबर से बनाए जाते, फिर रंगे जाते।
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डायर कॉन्टैक्ट लेंस: बहुत कम इस्तेमाल, बेहद असहज होते थे। ज्यादातर मेकअप से ही आँखों को खतरनाक बनाया जाता था।
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ब्लड: चॉकलेट सिरप, या गाढ़ा लाल रंग जो फिल्म पर काला दिखता था (क्योंकि लाल रंग ब्लैकआउट हो जाता)।
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भारतीय साइलेंट फिल्मों में मेकअप:
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भारत में भी साइलेंट फिल्में खूब बनीं। यहाँ की मेकअप परंपरा पारंपरिक थिएटर (जैसे पारसी थिएटर, जात्रा) से गहराई से प्रभावित थी।
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विलेन: बहुत भारी मेकअप, गहरे रंग, मोटी और तिरछी भौहें, कभी-कभी मूंछें भी। (जैसे सुलोचना फिल्म्स में)।
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हीरोइन: चमकता हुआ सफेद चेहरा, बड़ी-बड़ी आँखें, घुमावदार भौहें, गहरे होंठ (नीले/बैंगनी)। साड़ी और गहने भी किरदार की पहचान बनाते थे।
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ऐतिहासिक/पौराणिक किरदार: इनके मेकअप में थिएटर की परंपरा का साफ असर दिखता था। राजाओं, रानियों, देवी-देवताओं के लिए खास तरह के मुकुट, तिलक और मेकअप स्टाइल होते थे। फिल्में जैसे ‘राजा हरिश्चंद्र’, ‘सैरंध्री’ इसके उदाहरण हैं।
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हीरो: ज्यादातर नेचुरल मेकअप, लेकिन आँखें और भौहें जरूर एक्सेंट्युएटेड होती थीं।
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कलाकार: हेमेंद्र दास जैसे मेकअप आर्टिस्ट उस जमाने में मशहूर थे।
चुनौतियां: सुंदरता के लिए दर्द!
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भीषण गर्मी: तेज़ लाइट्स के नीचे ग्रीसपेंट और पाउडर का लेयर पसीने से बहने लगता था। बीच-बीच में मेकअप ठीक करना पड़ता था।
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लंबा वक्त: कई घंटे लगते थे मेकअप लगाने में, खासकर स्पेशल इफेक्ट्स वाले किरदारों के लिए। बोरिस कार्लॉफ़ का फ्रैंकनस्टाइन का मेकअप लगभग 4 घंटे लेता था!
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त्वचा की समस्याएं: भारी ग्रीसपेंट और पाउडर से त्वचा में दाने, रुकावट होना आम बात थी। मेकअप उतारना भी एक काम था।
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आँखों में जलन: काजल और आईलाइनर से आँखों में जलन होना आम था।
पैनक्रोमैटिक फिल्म का आना: मेकअप में क्रांति!
1920 के दशक के अंत में पैनक्रोमैटिक फिल्म का आगमन हुआ। यह फिल्म सभी रंगों को उनके सही ग्रे शेड्स में दिखा सकती थी। ये एक बड़ी क्रांति थी!
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लाल रंग का जश्न! अब लाल लिपस्टिक फिल्म पर लाल दिखने लगी! ब्लू लिप्स का ज़माना खत्म हुआ।
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नैचुरल टोन: गोरी त्वचा पर डार्क मेकअप की ज़रूरत कम हुई। चेहरे का प्राकृतिक रंग सही दिखने लगा।
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सूटल मेकअप: मेकअप को ज्यादा सूटल और रियलिस्टिक बनाना संभव हो गया। एक्सैजरेशन धीरे-धीरे कम हुआ।
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टेक्नीकलर: बाद में रंगीन फिल्मों ने तो मेकअप को पूरी तरह बदल दिया।
निष्कर्ष: बिना शब्दों के चेहरों पर लिखी इबारत
साइलेंट फिल्मों का मेकअप सिर्फ चेहरे को रंगना नहीं था, यह विजुअल स्टोरीटेलिंग की कला थी। ये मेकअप कलाकार गुमनाम नायक थे जिन्होंने ग्रीसपेंट, पाउडर और काली स्याही से ऐसे चेहरे गढ़े जो दशकों बाद भी हमारी यादों में जिंदा हैं। उनकी साधारण सी दिखने वाली ट्रिक्स (जैसे नीले होठ!) बेहद मुश्किल तकनीकी चुनौतियों का जीनियस समाधान थीं।
अगली बार जब आप चार्ली चैपलिन की मूंछें देखें, लोन चेनी की भौहें देखें या फ्रैंकनस्टाइन की बनावट देखें, तो याद कीजिए उस जमाने के उन मेकअप जादूगरों को, जिन्होंने बिना एक शब्द बोले, सिर्फ रंगों और आकारों से इतिहास रच दिया। यही थी साइलेंट सिनेमा की असली “आवाज”।