Movie Nurture: 1980s की बॉलीवुड फिल्में: जब सिनेमा था जादू जैसा

1980s की बॉलीवुड फिल्में: जब सिनेमा था जादू जैसा

1980 का दशक। वह दौर जब टेलीविज़न धीरे-धीरे घरों में घुस रहा था, लेकिन सिनेमा हॉल्स अब भी भरे रहते थे। हर शुक्रवार को नई फिल्म रिलीज़ होती, और लोग टिकट के लिए लाइन में लगे नज़र आते। यह वह ज़माना था जब फिल्में “सिर्फ़ मनोरंजन” नहीं, बल्कि जीने का एक तरीका थीं। कल्पना कीजिए—एक तरफ़ अमिताभ बच्चन की गर्दन झटकती आवाज़, दूसरी ओर सरोज खान के कोरियोग्राफ़ी वाले डांस, और बीच में ऐसी कहानियाँ जो दर्शकों को हँसाती, रुलाती, और सोचने पर मजबूर करतीं। 1980s का बॉलीवुड सिनेमा एक ऐसा जादू था, जिसने पूरी एक पीढ़ी को अपना दीवाना बना लिया। आइए, इस जादू के पीछे छुपे राज़ को समझते हैं।

Movie Nurture: 1980s की बॉलीवुड फिल्में: जब सिनेमा था जादू जैसा

वह दौर जब ‘एंग्री यंग मैन’ था किंग

1980s की शुरुआत अमिताभ बच्चन के करियर के चरम से हुई। 1970s में “ज़ंजीर” और “दीवार” से शुरू हुआ उनका ‘एंग्री यंग मैन’ का सफर 80s में “शक्ति” (1982), “कुली” (1983), और “मर्द” (1985) जैसी फिल्मों के साथ और भी धधका। यह वह दौर था जब अमिताभ की आवाज़, उनकी लंबी चाल, और कोट के लपेटे हुए हाथ युवाओं के लिए स्टाइल स्टेटमेंट बन गए थे।

लेकिन क्यों?
क्योंकि 80s का भारत बदल रहा था। बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, और सामाजिक असमानता के बीच आम आदमी को एक ऐसे हीरो की ज़रूरत थी जो सिस्टम से लड़े। अमिताभ का किरदार वही करता था—चाहे वह “कुली” में मज़दूर का बेटा हो या “मर्द” में गाँव का सरपंच।

यादगार डायलॉग:
“रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं, नाम है शहंशाह!” — शक्ति (1982)

फैमिली ड्रामा: जब परिवार था स्टोरी का हीरो

1980s की फिल्में सिर्फ़ एक्शन या रोमांस तक सीमित नहीं थीं। यह वह दौर था जब “परिवार” सिनेमा की रीढ़ बना। रिश्तों की गर्मजोशी, बिखरते परिवार, और फिर से जुड़ने की कोशिश—ये सब कहानियों का केंद्र थे।

  • “सौतेला” (1983): जीनत अमान और राजेश खन्ना की यह फिल्म दिखाती है कि कैसे एक सौतेली माँ बच्चों का दिल जीतती है।
  • “मैंने प्यार किया” (1989): सलमान और भाग्यश्री की यह लव स्टोरी नहीं, बल्कि एक पिता (अलोक नाथ) और बेटी के टकराव की कहानी है।
  • “राम तेरी गंगा मैली” (1985): राजकपूर की आखिरी फिल्म, जो गंगा की पवित्रता और समाज की गंदगी के बीच का संघर्ष दिखाती है।

क्यों कामयाब हुईं ये फिल्में?
क्योंकि उस दौर में परिवार अब भी “जॉइंट फैमिली सिस्टम” की ओर झुकाव रखता था। दर्शक खुद को पर्दे पर देख पाते थे।

रोमांस: जब प्यार में थी बेइज्जती का डर नहीं

1980s का रोमांस आज के मुकाबले शुद्ध और कवित्वमय था। यहाँ न कोई सेक्स सीन था, न ही लिव-इन रिलेशनशिप का प्रेशर। बस दो दिलों का टकराव, और समाज के बंधन।

  • “क़यामत से क़यामत तक” (1988): आमिर खान और जूही चावला की यह फिल्म रोमियो-जूलियट की भारतीय अवतार थी। गाना “पापा कहते हैं” आज भी दिल को छू लेता है।
  • “चाँदनी” (1989): सrideवी और रिशि कपूर का प्यार, स्विस पहाड़ियों की खूबसूरती, और यश चोपड़ा का जादू—इस फिल्म ने रोमांस को नई परिभाषा दी।
  • “हीरो” (1983): जैकी श्रॉफ और माधुरी दीक्षित (डेब्यू) की केमिस्ट्री ने बताया कि “बदमाश” भी दिल का सच्चा हो सकता है।

खास बात: उस दौर के नायक-नायिकाएँ प्यार के लिए लड़ते थे, लेकिन सम्मान के साथ। कोई स्टॉकर वाला प्यार नहीं, बल्कि इज्ज़त और सब्र की मिसाल।

Movie Nurture: 1980s की बॉलीवुड फिल्में: जब सिनेमा था जादू जैसा

म्यूज़िक: जब गाने थे दिल की धड़कन

1980s के बिना बॉलीवुड संगीत अधूरा है। यह वह दशक था जब एल.पी. रिकॉर्ड्स से कैसेट्स का दौर शुरू हुआ, और हर घर में फिल्मी गाने गूँजते थे।

  • किशोर कुमार और लता मंगेशकर की जोड़ी: “दिलबर मेरी कभी तू ना कहना मुझे” (सौतेला) और “तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी” (मसूम) जैसे गानों ने रूह को छू लिया।
  • बप्पी लहरी का डिस्को जादू: “जिमी जिमी” (डिस्को डांसर) और “रामबाला” (दादागिरी) ने युवाओं को डांस फ्लोर पर उतार दिया।
  • राहुल देव बर्मन (R.D. Burman) का अंतिम दौर: “सनम तेरी कसम” (1982) और “लव स्टोरी” (1981) में उनके संगीत ने एक युग को विदाई कही।

क्यों याद किए जाते हैं ये गाने?
क्योंकि उनमें “दिल” था। आज के रिमिक्स और ऑटो-ट्यून से परे, उस दौर के गाने सीधे दिल से निकलकर दिल तक पहुँचते थे।

कॉमेडी: जब हँसी थी बिना किसी मीनिंग के

1980s की कॉमेडी आज के मुकाबले सिंपल लेकिन दिल को छू लेने वाली थी। कोई डबल मीनिंग नहीं, बस मासूम शैतानियाँ।

  • “मिस्टर इंडिया” (1987): अनिल कपूर का “कालिया” और अमरीश पुरी का “मोगैम्बो” कॉमेडी का परफेक्ट बैलेंस थे।
  • “चश्म-ए-बद्दूर” (1981): रेखा और फारुख़ शेख़ की केमिस्ट्री ने “घंटा शर्मा जी, घंटा!” जैसे डायलॉग्स को अमर कर दिया।
  • “हम” (1991, लेकिन 80s की स्टाइल): अमिताभ और राजनीकांत की जोड़ी ने “जुगलबंदी” को नया मतलब दिया।

याद कीजिए: कादर खान और शक्ति कपूर जैसे विलेन-कॉमेडियन, जो एक ही सीन में डराते भी थे और हँसाते भी।

फैशन: जब बेल-बॉटम्स और बड़े बाल थे स्टेटमेंट

1980s का फैशन आज के लुक्स से कहीं ज़्यादा बोल्ड और अनछुआ था।

  • हीरोइन्स: परिधान साड़ियों से लेकर फ्रॉक्स तक—जीनत अमान की “सिल्क साड़ी” (सौतेला), सrideवी का “चाँदनी लुक” (चाँदनी), और माधुरी का “टी-शर्ट-स्कर्ट” (तेज़ाब)।
  • हीरोज़: अमिताभ का “कूली” वाला रैपर लुक, अनिल कपूर का “मिस्टर इंडिया” सूट, और जैकी श्रॉफ का लेदर जैकेट।
  • एक्सेसरीज़: बड़े-बड़े सनग्लासेस, कलरफुल हेयरबैंड्स, और घुंघरू वाले कानों के बालियाँ।

फन फैक्ट: 1980s में “स्ट्रीट डांसर्स” भी फिल्मों जैसा फैशन अपनाते थे। बॉलीवुड का असर सड़कों तक था!

विलेन्स: जब खलनायक थे दर्द का पर्याय

1980s के खलनायक सिर्फ़ “बुरे” नहीं होते थे—उनके पास एक बैकस्टोरी होती थी।

  • अमरीश पुरी: “मोगैम्बो” (मिस्टर इंडिया) और “भगवान दादा” (कर्मा) जैसे किरदारों ने उन्हें खलनायकों का बादशाह बना दिया।
  • रंजीत: “कुली” में उनका “ज़मींदार” और “मर्द” में “भैरों सिंह” डरावने लेकिन यादगार थे।
  • कादर खान: वह एक्टर जो विलेन और कॉमेडियन दोनों बन सकता था। “मुकद्दर का सिकंदर” में उनका “डोंग” किरदार इसका सबूत है।

याद कीजिए: विलेन्स के पास भी ममता होती थी। “अगर तुम मेरे बाप होते…” जैसे डायलॉग्स उन्हें इंसान बना देते थे।

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टेक्नोलॉजी: जब स्पेशल इफेक्ट्स थे ‘देसी इनोवेशन’

1980s में VFX नहीं, बल्कि “जुगाड़” हुआ करता था।

  • “मिस्टर इंडिया” (1987): दृश्य जहाँ अनिल कपूर गायब होता है—यह सीन एक शीशे के टुकड़े से शूट किया गया था!
  • “नागिन” (1986): रीना रॉय का सांप बनना—यह सिर्फ़ कैमरा ट्रिक्स और लाइटिंग का करिश्मा था।
  • “हिम्मतवाला” (1983): जीतेंद्र की “फ्लाइंग स्टंट्स” रस्सियों और ग्रीन स्क्रीन (तब ब्लू स्क्रीन) से की गईं।

क्यों याद करें?
क्योंकि उस दौर की फिल्में सिखाती थीं कि कम बजट में भी कल्पना को उड़ान दी जा सकती है।

विरासत: 1980s का जादू आज भी क्यों ज़िंदा है?

आज के दौर में जहाँ वेब सीरीज़ और OTT ने सिनेमा को चुनौती दी है, 1980s की फिल्में याद दिलाती हैं कि “सिनेमा का मतलब सिर्फ़ स्टोरी नहीं, एक अनुभव होता है।”

  • रीमेक्स: “मिस्टर इंडिया” और “शक्ति” जैसी फिल्मों के रीमेक्स बन रहे हैं, लेकिन मूल का जादू नहीं आ पाता।
  • नॉस्टेल्जिया: OTT प्लेटफॉर्म्स पर 80s की फिल्मों का ट्रैफ़िक बताता है कि लोग आज भी उस ज़माने के जादू को मिस करते हैं।
  • संगीत: आज के गाने भी 80s के ट्रैक्स को सैंपल करते हैं, जैसे “बप्पी लहरी” के बीट्स आज भी पार्टियों में छाए रहते हैं।

एक सवाल: क्या आज की पीढ़ी 80s का जादू दोबारा बना पाएगी? शायद नहीं। क्योंकि वह जादू टेक्नोलॉजी का नहीं, दिल का था।

निष्कर्ष: वह जादू जो लौटकर नहीं आएगा

1980s की फिल्में सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, एक भावनात्मक सफर थीं। यह वह दशक था जब सिनेमा ने समाज को दर्पण दिखाया, लेकिन उम्मीद भी जगाई। आज के दौर में

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