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मार्च ऑफ़ द फूल्स (1975): वो कोरियाई फिल्म जिसने युवाओं के दर्द को ‘बेवकूफ़ी’ का नाम दे दिया

Sonaley Jain by Sonaley Jain
April 21, 2025
in 1970, Films, Hindi, Korean, Movie Review, old Films, Top Stories
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MOvie Nurture: मार्च ऑफ़ द फूल्स (1975)
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साल 1975, दक्षिण कोरिया में सैन्य तानाशाही का दौर। युवाओं के सपनों पर लोहे के जूते चल रहे हैं, विरोध की आवाज़ें जेल की सलाखों में दबती जा रही हैं, और ऐसे में एक फिल्म आई — “मार्च ऑफ़ द फूल्स”। यह फिल्म सिर्फ़ एक कहानी नहीं, बल्कि उस पीढ़ी का दस्तावेज़ है जिसे “बेवकूफ़” कहकर ख़ामोश कर दिया गया। डायरेक्टर हा गिल-जोंग ने इसे बनाया, और यह कोरियाई सिनेमा के इतिहास में एक विस्फोट की तरह दर्ज हुई। आइए, इस फिल्म की गलियों में चलते हैं, जहाँ प्रेम, विद्रोह, और निराशा एक साथ धड़कते हैं।

कहानी: कैम्पस के कोने में दफ़्न आवाज़ें

फिल्म की शुरुआत होती है दो दोस्तों — जिन-ताए और योंग-सिक — के साथ, जो एक यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे हैं। जिन-ताए शायर है, जो कविताओं में अपने गुस्से को उड़ेलता है। योंग-सिक वो है जो सिस्टम से लड़ने की ज़िद में खुद को तबाह कर लेता है। इनके बीच है सुंदर सो-योंग, जो दोनों को प्यार करती है, मगर खुद को इस जंग में अकेला पाती है।

Movie Nurture: मार्च ऑफ़ द फूल्स (1975)

यह ट्रायंगल लव स्टोरी नहीं, बल्कि युवाओं की बेचैनी का मेटाफर है। कैम्पस की दीवारों पर चिपके पोस्टर, प्रदर्शनों में उछलते नारे, और पुलिस की लाठियाँ — ये सब फिल्म को एक “रिवॉल्यूशनरी रोमांस” बना देते हैं। मगर यहाँ प्रेम भी राजनीति से मुक्त नहीं। सो-योंग का चुनाव — जिन-ताए या योंग-सिक — असल में सवाल है: “कला या संघर्ष? भावनाएँ या विचार?”

युवा विद्रोह: जब बेवकूफ़ी बन जाती है इंकलाब

1970 के दशक में कोरिया में “युसिन” व्यवस्था थी — एक ऐसा सैन्य शासन जो छात्रों को “देशद्रोही” बताकर जेल में ठूंस देता था। फिल्म में योंग-सिक का किरदार इसी व्यवस्था के खिलाफ़ आग उगलता है। वह सड़कों पर उतरता है, पर्चे बांटता है, और जेल जाता है। मगर डायरेक्टर यहाँ एक कड़वा सच दिखाते हैं: “क्रांति की कीमत अक्सर क्रांतिकारी ही चुकाते हैं।” योंग-सिक का विद्रोह उसे उसी समाज से काट देता है, जिसे वह बदलना चाहता था।

वहीं, जिन-ताए का संघर्ष अंदरूनी है। उसकी कविताएँ उसकी डायरी बन जाती हैं — “मैं शब्दों से लड़ता हूँ, ताकि ख़ून न बहाना पड़े।” मगर क्या कला समाज बदल सकती है? यह सवाल फिल्म के अंत तक अनुत्तरित रहता है।

सिनेमैटोग्राफी: काले-सफ़ेद में रंगा दर्द

1970 के दशक की कोरियाई फिल्मों में कलर रेयर था, और “मार्च ऑफ़ द फूल्स” भी ब्लैक-एंड-व्हाइट में शूट की गई। मगर यहाँ रंगों की कमी भावनाओं की तीव्रता को और बढ़ा देती है। कैमरा अक्सर युवाओं के चेहरों के क्लोज़-अप में रुकता है — उनकी आँखों में नफ़रत, थकान, और टूटे सपने साफ़ दिखाई देते हैं।

एक यादगार सीन है जहाँ योंग-सिक और जिन-ताए एक बार में बैठे हैं। शराब के नशे में योंग-सिक चिल्लाता है — “हम बेवकूफ़ हैं क्योंकि हम सच देखते हैं!” और कैमरा धीरे-धीरे उसके चेहरे से हटकर बार के शीशे पर जाता है, जहाँ बाहर पुलिस की गाड़ियाँ खड़ी हैं। यह शॉट बिना किसी डायलॉग के बता देता है कि “आज़ादी सिर्फ़ एक भ्रम है।”

Movie Nurture:मार्च ऑफ़ द फूल्स (1975)

संगीत: गीतों में गूँजता विद्रोह

फिल्म का संगीत पारंपरिक कोरियाई धुनों और रॉक का मिश्रण है। एक गाना खास तौर पर याद आता है — “हम चलेंगे, भले ही रास्ता ख़त्म हो जाए”। यह गीत कैम्पस प्रदर्शनों का एंथम बन गया था। मगर विडंबना देखिए: इस गाने को सेंसरबोर्ड ने बैन कर दिया, क्योंकि यह “युवाओं को भड़काने वाला” था।

आलोचना और विरासत: क्यों यह फिल्म आज भी मायने रखती है?

1975 में रिलीज़ होते ही “मार्च ऑफ़ द फूल्स” को सेंसरबोर्ड ने काट-छाँटकर परोसा। सरकार इसे “अश्लील और विद्रोही” बताती रही। मगर युवाओं ने इसे गुप्त स्क्रीनिंग्स में देखा — फिल्म की पाइरेटेड कॉपीज़ हाथों-हाथ बिकती थीं।

आज, जब कोरिया लोकतांत्रिक है, यह फिल्म एक ऐतिहासिक आईना है। यह हमें याद दिलाती है कि “बेवकूफ़” वो नहीं जो सिस्टम से लड़ते हैं, बल्कि वो हैं जो चुप रहकर गुलामी चुनते हैं।

फिल्म का सबसे मार्मिक दृश्य

अंत के करीब, जिन-ताए और सो-योंग एक सुनसान रेलवे ट्रैक पर खड़े हैं। जिन-ताए पूछता है — “क्या हम कभी आज़ाद होंगे?” सो-योंग जवाब देती है — “शायद नहीं… मगर चलते रहना ही जीत है।” और कैमरा उन्हें धुंध में गुम होते दिखाता है। यह सीन निराशा और आशा का अजीब मिश्रण है — जैसे पूरी पीढ़ी की कहानी।

आखिरी बात: “मार्च ऑफ़ द फूल्स” सिर्फ़ कोरिया की नहीं, दुनिया के हर युवा की कहानी है। चाहे भारत में जेएनयू के प्रदर्शन हों या अमेरिका में ब्लैक लाइव्स मैटर — युवाओं का संघर्ष और सिस्टम का दमन एक जैसा ही रहा है। यह फिल्म हमें बताती है कि “बेवकूफ़” होना कभी-कभी सबसे समझदारी भरा फैसला होता है।

तो, अगर आपको लगता है कि सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन है, तो “मार्च ऑफ़ द फूल्स” आपकी सोच बदल देगी। और हाँ — यह फिल्म ढूँढ़ने में थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, क्योंकि यह आज भी “खतरनाक” मानी जाती है!

Tags: 1975 की फिल्मकोरियन फिल्म्सकोरियन सिनेमाफिल्म समीक्षारेट्रो सिनेमा
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