सियोल की एक ठंडी शाम, 1954, एक खाली पड़े सिनेमा हॉल में एक युवती अपनी आँखों में आँसू छुपाते हुए पर्दे पर चल रहे दृश्य को देख रही है। पर्दे पर वह खुद है—एक गरीब गाँव की लड़की, जो शहर आकर अपने सपनों को जीने की कोशिश करती है। यह कोई साधारण फिल्म नहीं, बल्कि कोरिया के युद्धग्रस्त दशक की असली कहानी थी, जिसे 1950 के दशक की अभिनेत्रियों ने अपने चेहरे के हाव-भाव से ज़िंदा कर दिया। यह वह दौर था जब कोरियाई सिनेमा अपने पैरों पर खड़ा हो रहा था, और इन अभिनेत्रियों ने न सिर्फ़ उसे सहारा दिया, बल्कि उसकी आत्मा बन गईं।
सौंदर्य का वह ज़माना: प्राकृतिक चमक और सादगी
1950 के दशक में कोरियाई अभिनेत्रियों का सौंदर्य आज के ‘की-लुक’ या ‘ग्लैमर’ से अलग था। यहाँ ‘खूबसूरती’ का मतलब था—साफ़ त्वचा, सीधे काले बाल, और आँखों में एक मासूम चमक। चोई यून-ही (Choi Eun-hee), जिन्हें ‘कोरियाई सिनेमा की रानी’ कहा जाता था, उनकी खूबसूरती में एक गाँव की साधारण लड़की का भोलापन था। मेकअप? बस हल्का पाउडर और लिपस्टिक। उस ज़माने में सर्जरी या फिल्टर नहीं होते थे—असली चेहरे पर भरोसा था।
लेकिन यह सौंदर्य सिर्फ़ बाहरी नहीं था। फिल्म “The Housemaid” (1960) की नायिका ली नाम-सुक (Lee Nam-suk) ने एक ऐसी औरत का किरदार निभाया, जिसकी आँखों में समाज के डबल स्टैंडर्ड का गुस्सा था। उनका सौंदर्य उनके अंदर के संघर्ष से जगमगा रहा था।
संघर्ष: युद्ध, भूख और पुरुषों के सिनेमा में जगह बनाना
1950 का दशक कोरिया के लिए खून, आग और बंटवारे का दौर था। कोरियाई युद्ध (1950-53) ने सबकुछ तबाह कर दिया। ऐसे में सिनेमा बनाना चुनौती थी। अधिकतर फिल्म सेट्स खंडहरों में बनते थे, और अभिनेत्रियों को भूखे पेट काम करना पड़ता। ह्वांग जंग-सून (Hwang Jung-seun), जो बाद में ‘मेलोड्रामा की रानी’ कहलाईं, ने एक इंटरव्यू में बताया: “हम रोजाना सिर्फ़ एक बार खाना खाते थे। कई बार तो कैमरा रोककर हम पास के खेतों से सब्जियाँ चुरा लेते।”
समाज भी उन पर नज़र रखता था। अभिनेत्रियों को ‘अच्छे चरित्र’ वाली भूमिकाएँ ही मिलतीं—वफादार पत्नी, बलिदानी माँ, या मासूम प्रेमिका। किम जी-मी (Kim Ji-mee), जिन्होंने “Madame Freedom” (1956) में एक आधुनिक औरत का किरदार निभाया, को समाज की भत्र्सना झेलनी पड़ी। फिल्म में उनका किरदार पश्चिमी कपड़े पहनता और नाइटक्लब जाता था, जो उस ज़माने में ‘अनैतिक’ माना जाता था।
सिनेमा की सुनहरी यादें: वो फिल्में जिन्होंने इतिहास बदल दिया
युद्ध के बाद के कोरिया को ‘खुद को फिर से खोजने’ की ज़रूरत थी, और सिनेमा इसकी आवाज़ बना। 1950 के दशक की फिल्में सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज का आईना थीं:
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“The Flower in Hell” (1958): युद्ध के बाद की अराजकता पर बनी इस फिल्म में चोई यून-ही ने एक ऐसी औरत का रोल निभाया, जो अमेरिकी सैनिकों के साथ संबंध बनाकर जीवन बसर करती है। यह फिल्म कोरियाई समाज के ‘वर्जित’ विषयों को छूने वाली पहली कड़ी थी।
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“Aimless Bullet” (1960): इस कालजयी फिल्म में किम जिन-क्यू ने एक गरीब परिवार के संघर्ष को दिखाया। अभिनेत्री यून जोंग-ही का किरदार, जो टीबी से मर रही गर्भवती औरत थी, ने दर्शकों को झकझोर दिया।
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“The Hand of Destiny” (1954): कोरिया की पहली साइंस-फिक्शन फिल्म, जिसमें ह्वांग जंग-सून ने एक वैज्ञानिक की भूमिका निभाई। उस ज़माने में एक औरत का ऐसा किरदार बड़ा क्रांतिकारी था।
विरासत: आज के कोरियाई सिनेमा की नींव
आज जब बोंग जून-हो की “Parasite” या सोंग कांग-हो का अभिनय दुनिया भर में सराहा जाता है, तो उसकी जड़ें 1950 के दशक में ही दिखती हैं। वह दौर जब अभिनेत्रियों ने स्क्रिप्ट के पन्नों में जान डाली। चोई यून-ही आगे चलकर कोरिया की पहली फीमेल फिल्म डायरेक्टर बनीं, और किम जी-मी ने अभिनय स्कूल खोलकर नई पीढ़ी को प्रशिक्षित किया।
लेकिन इन अभिनेत्रियों की सबसे बड़ी देन थी—साहस। उन्होंने साबित किया कि औरतें सिर्फ़ रोने-गाने वाली ‘डॉल्स’ नहीं, बल्कि समाज की कहानी कह सकती हैं।
अंतिम दृश्य: एक पुरानी फिल्म का जादू
आज भी सियोल के ‘कोरियाई फिल्म आर्काइव’ में कुछ लोग उन पुरानी फिल्मों को देखने आते हैं। जब पर्दे पर ह्वांग जंग-सून की मुस्कान आती है, तो एक बूढ़ा आदमी धीरे से कहता है: “यह मुस्कान देखकर मैंने ज़िंदगी जीना सीखा।” शायद यही सिनेमा की असली ताकत है—यह न सिर्फ़ यादें, बल्कि ज़िंदगी की चिंगारी भी बचाए रखता है।
1950 की ये अभिनेत्रियाँ अब नहीं हैं, लेकिन उनकी फिल्में आज भी हमसे एक सवाल पूछती हैं: “क्या हमने उनके संघर्षों को सच्ची आज़ादी में बदल दिया?” शायद अभी नहीं… लेकिन जब तक उनकी कहानियाँ चलती रहेंगी, उम्मीद बनी रहेगी।
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