सिनेमा हॉल का अँधेरा, पर्दे पर चेहरा, वो आवाज़, वो अदाएँ, कुछ पल के लिए हम भूल जाते हैं कि ये हमारे और हमारे बीच का कोई नहीं, बल्कि एक सितारा है जिसने दशकों तक हमें हँसाया, रुलाया, सोचने पर मजबूर किया। फिर एक दिन, अचानक या धीरे-धीरे, वो चेहरा नया नहीं दिखता। पता चलता है – वो आखिरी फिल्म थी। वो आखिरी भूमिका थी। कैमरा बंद हुआ और उसके साथ ही एक युग का अंत हो गया। ये सिर्फ फिल्में नहीं, बल्कि समय के कैप्सूल हैं। इनमें कैद है न सिर्फ एक आखिरी परफॉर्मेंस, बल्कि अक्सर एक जीवन भर के अनुभव का निचोड़, एक विदाई का बयान, और कभी-कभी, एक अनकही विरासत।
ये आखिरी फिल्में हमेशा मास्टरपीस नहीं होतीं। कभी वो एक बड़े सितारे की छोटी सी भूमिका होती है, तो कभी एक ऐसी फिल्म जो बॉक्स ऑफिस पर धूल खा गई। मगर उनका महत्व इससे कहीं ज़्यादा गहरा होता है। ये हमें याद दिलाती हैं कि ये दिग्गज भी इंसान थे – उम्र के साथ लड़ते हुए, बीमारी से जूझते हुए, या बस ये फैसला करते हुए कि अब बस करने का वक्त आ गया है। आइए, कुछ ऐसे ही अमर सितारों की आखिरी फिल्मों की यात्रा पर चलें, और देखें कि उन्होंने पर्दे से कैसे विदाई ली:
-
राज कपूर: ‘हिना’ (1991) – एक अधूरी कहानी, एक पूरा सफर
-
आखिरी भूमिका: एक पठान जमींदार, ज़ब्दस्त ख़ान। उम्रदराज़, गंभीर, लेकिन आँखों में वही चंचलता के झलक।
-
विदाई का पल: राज कपूर फिल्म के सेट पर ही बीमार पड़ गए। उन्होंने अपने बेटे रणधीर कपूर को डायरेक्ट करने को कहा। फिल्म रिलीज़ होने से पहले ही, जनवरी 1988 में, उनका निधन हो गया। ‘हिना’ 1991 में रिलीज़ हुई।
-
क्या कहता है चित्र: राज साहब का चेहरा थकान और बीमारी के निशान झेल रहा था, मगर उनकी आँखों में अभी भी वो जादू था, वो कहानी सुनाने का जुनून। उनकी आखिरी फिल्म भी एक प्यार की कहानी थी – अंतरधर्मी प्रेम, जो उनके करियर का केंद्रीय विषय रहा, ‘बॉबी’ से लेकर ‘हिना’ तक। ये विदाई एक ट्रेजडी थी – एक मास्टर स्टोरीटेलर का कैमरा छोड़ना, एक कहानी बीच में ही छोड़कर चले जाना। मगर ‘हिना’ उनकी अटूट भावुकता और जीवन के प्रति प्रेम की गवाह है।
-
-
देव आनंद: ‘चार्जशीट‘ (2011) – अंत तक रोमांटिक, अंत तक जुनूनी
-
आखिरी भूमिका: खुद देव आनंद! एक ऐसा किरदार जो उनकी ही तरह फिल्मों से प्यार करता है, जुनूनी है, और ज़िंदगी को भरपूर जीता है।
-
विदाई का पल: देव साहब कभी रुकने वाले नहीं थे। 80 के दशक के बाद उनकी फिल्में चलीं नहीं, मगर वो लगातार बनाते रहे, अभिनय करते रहे। ‘चार्जशीट‘ उनकी आखिरी रिलीज़ हुई फिल्म थी। उनका निधन दिसंबर 2011 में लंदन में हुआ, अभी भी सक्रिय, अभी भी सपने देखते हुए।
-
क्या कहता है चित्र: ‘चार्जशीट‘ में देव आनंद पूरी तरह से ‘देव आनंद’ ही थे – स्टाइलिश, जोशीले, रोमांटिक, थोड़े नाटकीय। ये उनकी जिद, उनके अटूट जुनून का प्रमाण थी। उन्होंने कभी औपचारिक विदाई नहीं ली। वो सचमुच कैमरा रोल करते हुए, एक्टिंग करते हुए ही इस दुनिया से विदा हुए। उनकी आखिरी फिल्म उनके जीवन मंत्र का प्रतीक है – “हमने तुम्हें जीवन भर सपने दिखाए, अब तुम हमें सपने दिखाओ।”
-
-
दिलीप कुमार: ‘क़िला’ (1998) – एक सम्राट का गरिमापूर्ण अवसान
-
आखिरी भूमिका: एक रहस्यमयी, शक्तिशाली ज़मींदार, यशवर्धन सिंह। एक ऐसा किरदार जिसमें उनकी दमदार उपस्थिति और गरिमा झलकती है।
-
विदाई का पल: ‘क़िला’ के बाद दिलीप साहब ने धीरे-धीरे सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लिया। स्वास्थ्य समस्याओं के चलते उन्होंने अभिनय से विदाई का फैसला किया। उनका निधन जुलाई 2021 में हुआ।
-
क्या कहता है चित्र: ‘क़िला’ में दिलीप कुमार उस ‘ट्रेजडी किंग’ की छवि से अलग थे जिसके लिए मशहूर थे। यहाँ वो एक आधिपत्य रखने वाले, रहस्यमयी व्यक्ति थे। उनकी आवाज़ में वही गहराई और आँखों में वही ताकत थी, हालाँकि उम्र का भार साफ़ दिख रहा था। ये विदाई एक राजा की तरह थी – शांत, गरिमापूर्ण, अपने समय का सम्मान करते हुए। उन्होंने कैमरा बंद किया, लेकिन उनकी विरासत कभी धुंधली नहीं पड़ी।
-
-
राजेश खन्ना: ‘रिस्क’ (2007) – एक सुपरस्टार का मार्मिक अंतिम प्रदर्शन
-
आखिरी भूमिका: एक गैंगस्टर लीडर, सरदार सिंह। एक ऐसा किरदार जो उनके करियर के आखिरी दौर की विलेन/कैरेक्टर भूमिकाओं को दर्शाता है।
-
विदाई का पल: ‘रिस्क’ के बाद भी राजेश खन्ना ने कुछ फिल्मों पर हस्ताक्षर किए, लेकिन उनकी तबीयत खराब रहने लगी। उनकी आखिरी रिलीज़ हुई फिल्म ‘रिस्क’ ही मानी जाती है। जुलाई 2012 में उनका निधन हो गया।
-
क्या कहता है चित्र: ‘रिस्क’ में राजेश खन्ना का दिखना काफी मार्मिक है। उनका वह जादुई चेहरा, जो लाखों दिलों पर राज करता था, उम्र और बीमारी से जूझ रहा था। उनकी आवाज़ में पहले जैसी चंचलता नहीं थी, मगर उनकी स्क्रीन उपस्थिति अभी भी कमाल की थी। ये देखना दर्दभरा था कि हिंदी सिनेमा का पहला सुपरस्टार अपनी आखिरी फिल्म में एक साधारण सी भूमिका में है। मगर ये भी उनकी सच्चाई थी – स्टारडम की चकाचौंध के बाद का सफर, जहाँ भूमिकाएँ छोटी हो जाती हैं, लेकिन सम्मान कम नहीं होता। उनकी विदाई एक युग के अंत की तरह थी – 70 के दशक की भावुकता, रोमांस और स्टारडम का अंतिम सूर्यास्त।
-
-
मीना कुमारी: ‘पाकीज़ा’ (1972) – एक कविता, एक विरहगीत, एक अंतिम चित्र
-
आखिरी भूमिका: साहिबजान / तवायफ़। एक ऐसी औरत जो प्रेम की तलाश में है, गरिमा की तलाश में है, अपनी पहचान की तलाश में है।
-
विदाई का पल: मीना कुमारी की ज़िंदगी खुद एक ट्रेजडी थी। ‘पाकीज़ा’ का निर्माण कई साल चला। फिल्म के दौरान वो बीमार रहीं, शराब पर निर्भर रहीं। फिल्म रिलीज़ होने के महज कुछ हफ्ते बाद, मार्च 1972 में, उनका निधन हो गया। वो अपनी इस महान कृति को सफल होता हुआ देखने के लिए जीवित नहीं रहीं।
-
क्या कहता है चित्र: ‘पाकीज़ा’ में मीना कुमारी सिर्फ एक्टिंग नहीं कर रही थीं, वो जी रही थीं। उनकी आँखों में छलकता दर्द, गीतों में गूँजती विरह की पीड़ा (“चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना…”), उनके किरदार साहिबजान का संघर्ष – ये सब उनकी अपनी ज़िंदगी से अद्भुत तरीके से मेल खाता था। उनकी खूबसूरती पर उम्र और दुखों के बावजूद एक अलौकिक नूर था। ‘पाकीज़ा’ उनकी आखिरी फिल्म ही नहीं, बल्कि उनकी आत्मा का आईना थी। उनकी विदाई उसी तरह हुई जैसे उनकी फिल्मों का अंत होता था – दुखांत, मार्मिक, अविस्मरणीय। वो पर्दे पर हमेशा के लिए अमर हो गईं, ठीक उसी वक्त जब असल ज़िंदगी ने उन्हें छोड़ दिया।
-
-
नूतन: ‘मेरी जंग’ (1985) – शांत गरिमा के साथ अंतिम धमाका
-
आखिरी भूमिका: एक गुस्सैल, जुझारू, और बेहद प्रतिभाशाली वकील, आरती गुप्ता। एक ऐसा किरदार जो उनके करियर के अंत में भी उनकी शक्ति और प्रतिभा का प्रमाण था।
-
विदाई का पल: ‘मेरी जंग’ के बाद नूतन ने अभिनय से संन्यास ले लिया। वो अपने परिवार के साथ समय बिताना चाहती थीं। फरवरी 1991 में कैंसर से उनका निधन हो गया।
-
क्या कहता है चित्र: ‘मेरी जंग’ में नूतन ने ये साबित कर दिया कि वो कभी ‘बस’ नहीं हुई थीं। आरती गुप्ता का किरदार ताकतवर, गुस्सैल, बुद्धिमान और अविश्वसनीय रूप से जीवंत था। नूतन ने उसे पूरी ऊर्जा और दमदारी के साथ निभाया। उनकी आँखों में चमक, उनके डायलॉग डिलीवरी का जोश – ये सब दिखाता था कि वो अभी भी अपने पूरे शबाब पर हैं। उन्होंने चुनिंदा भूमिकाएँ निभाने के बाद, एक शानदार अभिनय के साथ पर्दे को अलविदा कहा। ये विदाई उनकी पर्सनैलिटी की तरह थी – शांत, गरिमापूर्ण, लेकिन जोरदार। वो एक महान अभिनेत्री के रूप में विदा हुईं, जिन्होंने अपनी शर्तों पर करियर को अलविदा कहा।
-
-
शम्मी कपूर: ‘रॉकस्टार’ (2011) – यूथ आइकन का प्यार भरा आशीर्वाद
-
आखिरी भूमिका: उस्ताद जमालुद्दीन खान, जानकी देवी के पिता। एक संगीतकार जो अपनी बेटी के संगीत के सफर में बाधक बनता है, लेकिन अंततः उसका साथ देता है।
-
विदाई का पल: शम्मी कपूर लंबे समय तक बीमार रहे, डायलिसिस पर थे। ‘रॉकस्टार’ की शूटिंग के दौरान भी उनकी तबीयत खराब थी। अगस्त 2011 में उनका निधन हो गया। ‘रॉकस्टार’ उनकी आखिरी रिलीज़ हुई फिल्म थी।
-
क्या कहता है चित्र: ‘रॉकस्टार’ में शम्मी कपूर की मौजूदगी एक भावुक कर देने वाली कड़ी थी। जवानी के जांबाज़ ‘याहू’ स्टार अब एक बूढ़े, थके हुए, लेकिन अपनी बेटी से प्यार करने वाले पिता की भूमिका में थे। उनकी आवाज़ कमज़ोर थी, चेहरे पर बीमारी के निशान थे, मगर उनकी आँखों में वही मासूमियत और चुलबुलापन झलकता था। उनकी आखिरी स्क्रीन पर नज़र आना एक पीढ़ी के यूथ आइकन का अगली पीढ़ी के स्टार (रणबीर कपूर) को आशीर्वाद देने जैसा था। ये विदाई एक प्यारे दादा की तरह थी – नर्म, आशीर्वाद से भरी हुई, और एक सुनहरे अतीत की याद दिलाने वाली।
-
निष्कर्ष: विदाई सिर्फ एक फ्रेम नहीं, एक भावना है
इन आखिरी फिल्मों को देखना सिर्फ एक परफॉर्मेंस देखना नहीं है। ये एक भावनात्मक यात्रा है। हम एक इंसान को उसकी ज़िंदगी के आखिरी दौर में देखते हैं – संघर्ष करते हुए, जीतते हुए, थकते हुए, मगर अक्सर अपने पेशे से प्यार करते हुए। ये फिल्में हमें याद दिलाती हैं कि ये सितारे सुपरह्यूमन नहीं थे। वो भी उम्र के सामने झुके, बीमारी से लड़े, और अंततः चले गए।
कुछ विदाईयाँ अचानक और दर्दनाक थीं (सुचित्रा सेन – ‘आंधी’, सुधा चंद्रन के साथ उनकी आखिरी फिल्म ‘छल’, जो रिलीज़ होने से पहले ही उनका निधन हो गया), कुछ नियोजित और शांतिपूर्ण (अशोक कुमार – ‘आँचल’, जिसके बाद उन्होंने अभिनय छोड़ दिया)। कुछ विदाईयाँ एक पूर्णविराम थीं (दिलीप कुमार, नूतन), तो कुछ विराम चिह्न भर (देव आनंद, जिनका जाना कभी पूरा विश्वास ही नहीं होता)।
मगर हर आखिरी फ्रेम, हर आखिरी डायलॉग, हर आखिरी मुस्कान हमारी सामूहिक स्मृति का हिस्सा बन जाती है। ये हमें उस जादू की याद दिलाती हैं जो इन कलाकारों ने बिखेरा। ये हमें उनके योगदान का सम्मान करना सिखाती हैं। और शायद सबसे ज़रूरी, ये हमें जीवन की नश्वरता और कला की अमरता के बीच के उस गहरे अंतर को महसूस कराती हैं। कैमरा बंद हुआ, स्टूडियो की लाइटें बुझ गईं, मगर पर्दे पर वो आखिरी छवि हमेशा के लिए जिंदा रहेगी – एक अंतिम प्रणाम, एक शाश्वत अलविदा।