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Home Hindi

चारियट्स ऑफ़ फायर” (1981): जब जीत सिर्फ मेडल नहीं, खुद से लड़ाई होती है

Sonaley Jain by Sonaley Jain
April 15, 2025
in Hindi, Hollywood, Inspirational, Movie Review, old Films, Top Stories
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Movie Nurture: चारियट्स ऑफ़ फायर" (1981): जब जीत सिर्फ मेडल नहीं, खुद से लड़ाई होती है
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1981 सिनेमाघरों में एक फिल्म आई, जिसका नाम था—”चारियट्स ऑफ़ फायर”। इस फिल्म की शुरुआत हुई समंदर किनारे धीमी गति में दौड़ते एथलीट्स के साथ। पैरों से नहीं, दिल से दौड़ती ये तस्वीर… Vangelis का संगीत जैसे रूह को छू ले। फिल्म नहीं, एक सवाल था: “जीत किसकी होती है? उसकी जो सबसे तेज़ दौड़े, या उसकी जो खुद को हराए?”

Movie Nurture: चारियट्स ऑफ़ फायर" (1981): जब जीत सिर्फ मेडल नहीं, खुद से लड़ाई होती है

एरिक लिडेल: वो धावक जिसने भगवान को दौड़ाया
स्कॉटलैंड का ये शख्स मिशनरी बनना चाहता था। पर उसके पैरों में एक आग थी। वह कहता है कि, “जब मैं दौड़ता हूँ, तो मुझे भगवान की खुशबू आती है।” 1924 का ओलंपिक और उसकी रेस होनी थी रविवार को, और वह उसके चर्च जाने का दिन। एरिक ने इनकार कर दिया। लोगों ने कहा, “पागल है! करियर दांव पर।” मगर एरिक ने 400m में दौड़कर गोल्ड जीता। उसकी जीत में विश्वास का स्वाद था।

हैरल्ड एब्राहम्स: यहूदी होने का बोझ और साबित करने की जिद
कैम्ब्रिज में पढ़ने वाला एक यहूदी लड़का। उसकी दौड़ सिर्फ ट्रैक पर नहीं थी मगर अंग्रेजों की नकली शान के खिलाफ थी। “मैं हर दौड़ जीतूँगा। ताकि मेरे नाम के आगे ‘यहूदी’ न लिखा जाए।” कोच मसाबिनी ने सिखाया: “दौड़ तुम्हारी है, मगर दुश्मन तुम्हारे अंदर है – डर।” 100m की रेस… इसमें हैरल्ड ने गोल्ड जीता। उसकी आँखों में गर्व था।

संगीत: जो दौड़ता नहीं, उसे भी दौड़ा दे
Vangelis का synthesizer score… जैसे हवा में तैरती जीत। पियानो की धुन पैरों में चिंगारी भर दे। आज भी ओलंपिक में ये संगीत बजता है। क्यों? क्योंकि ये सिर्फ धुन नहीं, जुनून का एहसास है।

दो रास्ते, एक मंज़िल
एरिक और हैरल्ड। एक का लक्ष्य स्वर्ग था, दूसरे का सम्मान। एरिक ने रविवार को चर्च जाकर बताया—”ईमानदारी जीत से बड़ी होती है।” हैरल्ड ने साबित किया—”जब तक सांस है, हार मत मानो।” दोनों की कहानियाँ अलग, मगर सीख एक: “जीत तभी है जब तुम खुद से ईमानदार हो।”

Movie Nurture: चारियट्स ऑफ़ फायर" (1981): जब जीत सिर्फ मेडल नहीं, खुद से लड़ाई होती है

ऑस्कर नहीं, दिल जीता
इस फिल्म को बेस्ट पिक्चर के लिए ऑस्कर अवॉर्ड मिला। मगर असली पुरस्कार था दर्शकों का रोमांच। कोच मसाबिनी का डायलॉग: “चैंपियन वो नहीं जो नहीं डरता। चैंपियन वो है जो डर के बावजूद दौड़ता है।” ये लाइनें सिनेमा की नहीं, ज़िंदगी की किताब से निकली हैं।

आखिरी दृश्य: इतिहास में जिंदा चेहरे
फिल्म का अंत… असली एरिक और हैरल्ड की क्लिप्स। 1924 के ओलंपिक का ब्लैक-एंड-व्हाइट फुटेज। एरिक ने चीन जाकर मिशनरी बनना चुना। हैरल्ड ने कानून की दुनिया में नाम कमाया। दोनों ने साबित किया—जीत का मतलब सिर्फ मेडल नहीं, अपने सिद्धांतों से समझौता न करना होता है।

2025 में भी क्यों ज़रूरी है ये फिल्म?
क्योंकि आज भी हम दौड़ रहे हैं। पैसों की रेस। सोशल मीडिया की रेस। “चारियट्स ऑफ़ फायर” याद दिलाती है—”दौड़ो, मगर उसके लिए जो तुम्हारी रूह को छू ले।” चाहे वो भगवान हो, अपनी पहचान, या बस खुद का वादा।

फिल्म का एक दृश्य याद आता है। एरिक रेस से पहले प्रार्थना करता है। हैरल्ड ट्रैक पर डर को मारता है। दोनों के चेहरे पर एक ही भाव—”मैं यहीं हूँ। मैं जीतूँगा।” शायद यही इस फिल्म की मैजिक है।

Tags: आत्म संघर्षऑस्कर विजेताओलंपिक1924खेल की दुनियाप्रेरणादायक कहानी
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