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Home 1940

1940 का दशक: बॉलीवुड सिनेमा की वह उथल-पुथल जिसने रचा इतिहास

by Sonaley Jain
April 23, 2025
in 1940, Bollywood, Films, Hindi, old Films, Top Stories
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Movie Nurture: 1940 का दशक: बॉलीवुड सिनेमा की वह उथल-पुथल जिसने रचा इतिहास
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साल 1942 की एक गर्म रात, बम्बई के मोहन स्टूडियो के सेट पर बल्बों की रोशनी में एक कैमरामैन पसीना पोंछते हुए बुदबुदाया, “फिल्म स्टॉक ख़त्म हो रहा है, साहब। युद्ध के कारण इम्पोर्ट बंद है।” निर्देशक के. आसिफ़ ने चुपचाप अपनी पगड़ी सिर पर सही की और बोले, “तो क्या हुआ? हम रेत में से भी तेल निकाल लेंगे।” यह था 1940 का दशक—जब बॉलीवुड न सिर्फ़ फिल्में बना रहा था, बल्कि तबाही के बीच से कला की इमारत खड़ी कर रहा था। यह वह दौर था जब सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, बल्कि एक साइलेंट रिवोल्यूशन था।

Movie Nurture: 1940 का दशक: बॉलीवुड सिनेमा की वह उथल-पुथल जिसने रचा इतिहास

युद्ध, अकाल, और सिनेमा: जब रीलों पर उतरा समय का दर्द

1940 का दशक भारत के लिए आग और ख़ून में लिखा गया अध्याय था। द्वितीय विश्वयुद्ध, बंगाल का अकाल, भारत छोड़ो आंदोलन—ऐसे में फिल्मकारों के पास न तो पैसा था, न रंग, न ही फिल्म स्टॉक। अंग्रेज़ सरकार ने सिनेमा को “गैर-जरूरी” घोषित कर दिया था। मगर इसी मुश्किल ने बॉलीवुड को नई राह दिखाई।

स्टूडियो सिस्टम टूट रहा था। बड़े प्रोडक्शन हाउस बंद हो गए, मगर छोटे निर्देशकों ने अवसर देखा। 1943 में चेतन आनंद ने नीचा नगर बनाई—एक ऐसी फिल्म जिसने भारत की गरीबी को कैमरे में कैद करके कान्स फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कार जीता। यह पहली बार था जब भारतीय सिनेमा ने विश्व पटल पर अपनी पहचान बनाई। फिल्म की सिनेमैटोग्राफी में कोई सेट नहीं था—झुग्गियों की असली गंदगी, बारिश में भीगते बच्चे, और टूटी हुई बैलगाड़ियाँ कैमरे की आँख बन गईं।

लाइट, कैमरा, इनोवेशन: जब टेक्नोलॉजी नहीं, दिमाग चला

उस दौर के कैमरामैन जादूगर थे। अँधेरे को रोशनी में बदलने के लिए वे शीशों का इस्तेमाल करते, बल्बों को कपड़े से ढककर सॉफ्ट लाइट बनाते। महल (1949) में मदन मोहन ने शैडो प्ले से ऐसा मंजर रचा कि दर्शकों की रूह काँप गई। एक सीन में मधुबाला की परछाई सीढ़ियों पर चलती है, और कैमरा उसी के पीछे-पीछे बढ़ता है—जैसे कोई भूत कहानी सुना रहा हो।

रंगों के अभाव में ब्लैक एंड व्हाइट को ही ताकत बना लिया गया। राम राज्य (1943) में महात्मा गांधी का पसंदीदा दृश्य—भगवान राम का राज्याभिषेक—सफेद धोती और काले आकाश के कॉन्ट्रास्ट में फिल्माया गया। यहाँ सिनेमैटोग्राफर ने नैतिकता और अंधकार के बीच का संघर्ष दिखाने के लिए लाइटिंग को चरित्र बना दिया।

गीतों का जादू: जब कैमरा नाचता था शब्दों के साथ

1940 का दशक वह दौर था जब प्लेबैक सिंगिंग ने जन्म लिया। कुंदन लाल सहगल की आवाज़ के जादू के पीछे कैमरामैन का भी हुनर था। तानसेन (1943) के गाने “सपनो के सुंदर नगर” में सहगल को एक अँधेरे कमरे में बैठे दिखाया गया, जहाँ सिर्फ़ उनका चेहरा रोशनी में तैरता है—जैसे संगीत की रौशनी अंधेरे को चीर रही हो।

लेकिन इसी दशक में नौशाद ने अंदाज़ (1949) के गानों को शूट करते हुए कैमरे को “तीसरा पात्र” बना दिया। “उठाये जा उनके सितम” में दिलीप कुमार और राज कपूर की झलक एक ही फ्रेम में दिखाई देती है—एक बारिश में भीगता हुआ, दूसरा खिड़की से झाँकता हुआ। यहाँ कैमरा दो दिलों की दूरी को माप रहा था।

Movie Nurture: 1940 का दशक: बॉलीवुड सिनेमा की वह उथल-पुथल जिसने रचा इतिहास

सेंसरशिप और सिनेमा: छुपकर बोली गई सच्चाइयाँ

अंग्रेज़ सरकार की नज़रों से बचने के लिए फिल्मकारों ने प्रतीकों का सहारा लिया। धरती के लाल (1946) में बंगाल के अकाल को दिखाने के लिए एक टूटी हुई हंडिया का इस्तेमाल किया गया—जो भारत की टूटी अर्थव्यवस्था का प्रतीक थी। कैमरा उस हंडिया पर इतनी देर टिका रहता कि दर्शकों का गुस्सा उबल पड़े।

मेहबूब खान की अंदाज़ में नर्गिस की साड़ी का लाल रंग प्रेम और ख़तरे दोनों का संकेत था। जब वह पहली बार दिलीप कुमार से मिलती है, तो कैमरा उसकी चूड़ियों पर फोकस करता है—जो टूटने की कगार पर हैं। यह एक साधारण शॉट नहीं, बल्कि समाज की पाबंदियों पर चोट थी।

स्टार्स की पहली पीढ़ी: चेहरों पर उभरता इतिहास

दिलीप कुमार, राज कपूर, नर्गिस—इन सितारों ने 1940 में डेब्यू किया। मगर उनके चेहरे सिर्फ़ सुंदर नहीं, बल्कि कैमरे के लिए कैनवास थे। ज्वार भाटा (1944) में दिलीप कुमार के आँसू वास्तविक लगते थे, क्योंकि कैमरामैन ने क्लोज-अप शॉट्स में उनकी आँखों की नमी को कैद किया।

नर्गिस को रत्ती (1944) में पहली बार एक बाल कलाकार के रूप में लॉन्च किया गया। एक सीन में वह खिलौना गाड़ी ढूँढते हुए फ्रेम में आती है, और कैमरा उनकी मासूमियत को इस तरह पकड़ता है जैसे कोई कविता लिख रहा हो। यह वह दौर था जब अभिनेता और कैमरामैन एक-दूसरे की सांसों का हिसाब रखते थे।

Movie Nurture: Raj kapoor

विरासत: वह दशक जिसने सिनेमा को नई आँखें दीं

1940 का दशक ख़त्म होते-होते बॉलीवुड ने वह सब सीख लिया था जो आगे के 30 सालों के लिए ज़रूरी था। यहीं से नींव पड़ी थी गुरुदत्त के फ्रेमिंग की, बिमल रॉय के लाइटिंग की, और सत्यजित रे के रियलिज़्म की।

आज जब हम देवदास (1955) के शम्मी कपूर के शॉट्स देखते हैं, या शोले के अँधेरे-उजाले वाले दृश्य, तो उनकी जड़ें 1940 के सिनेमा में दिखती हैं। यह दशक सिर्फ़ फिल्मों का नहीं, बल्कि उन लोगों का भी था जिन्होंने असंभव को संभव किया—बिना रंग, बिना स्टॉक, बस एक कैमरा और जुनून के सहारे।

1940 का बॉलीवुड सिनेमा एक ऐसा आईना था जिसमें भारत का दर्द, उम्मीद और जज़्बा एक साथ झलकता था। आज के डिजिटल कैमरों और VFX के ज़माने में भी, उस दौर की फिल्में हमें याद दिलाती हैं कि असली कला वह नहीं जो दिखाई दे, बल्कि वह जो महसूस कराई जाए। और शायद यही वजह है कि 80 साल बाद भी, महल की सीढ़ियों पर मधुबाला की परछाई हमें रोंगटे खड़े कर देती है—जैसे कैमरा आज भी वहीं खड़ा हो, इतिहास को टकटकी लगाए देख रहा हो।

Tags: 1940 का दशककहानी बॉलीवुड कीक्लासिक फिल्मेंबॉलीवुड इतिहासहिंदी सिनेमा
Sonaley Jain

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Lights, camera, words! We take you on a journey through the golden age of cinema with insightful reviews and witty commentary.

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