आंखें मूंदो। कान खोलो। क्या सुनाई देता है? शायद दूर से आती कोई सीटी… या फिर रेडियो पर बजता कोई पुराना सा सुर… और अचानक, वो मस्तिष्क के किसी कोने में छुपी यादें ताज़ा हो जाती हैं। एक गीत, जिसे सुनते ही चेहरे पर मुस्कान खिंच आती है, पैर थिरकने लगते हैं, या फिर आंखें थोड़ी नम हो जाती हैं। ये जादू है उन गानों का, जो सिर्फ धुनें नहीं, हमारे जीवन के कुछ पन्नों के साथ इतनी गहराई से जुड़ गई हैं कि उन्हें भूल पाना नामुमकिन सा लगता है। और सच कहूं तो, बॉलीवुड भी इन्हें कभी भूल नहीं पाएगा, क्योंकि ये उसकी धड़कन हैं, उसकी पहचान का अटूट हिस्सा।
ये गाने किसी साधारण हिट से कहीं आगे की बात करते हैं। ये वो टाइम कैप्सूल हैं जो हमें सीधे एक दौर में ले जाते हैं। उस स्कूल डेज़ के दिनों में लौटा देते हैं जब ‘छैय्या -छैय्या ‘ (दिल से) की धुन पर दोस्तों के साथ बेतहाशा नाचते थे, बिना इस बात की परवाह किए कि कोई देख रहा है या नहीं। या फिर वो पहला प्यार, जब ‘तुझे देखा तो ये जाना सनम’ (दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे) का मतलब सचमुच समझ में आया होगा, और दिल में अजीब सी गुदगुदी होती थी। ये गीत हमारे निजी इतिहास के मार्कर बन गए। हर बार जब वो बजते हैं, हम उस पल में वापस चले जाते हैं – उस खुशी में, उस उत्साह में, उस दर्द में।
इन गानों की खासियत क्या है? सिर्फ मधुर धुन या चुनिंदा बोल नहीं। ये तो वो जादुई संयोग थे जहां कई कलाएं एक साथ मिलकर कुछ अलग रच देती थीं।
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कालजयी संगीतकारों का जादू: कल्याणजी-आनंदजी, आर.डी. बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, नौशाद, मदन मोहन, ए.आर. रहमान – इन नामों के साथ जुड़े गाने सिर्फ सुनने के लिए नहीं, महसूस करने के लिए भी होते थे। उनकी धुनों में एक ‘सोल’ थी। चाहे ‘लग जा गले’ (वो कौन थी?) का मार्मिक सुर हो या ‘ये जो मोहब्बत है’ (कटी पतंग) का रूमानी अंदाज़, या ‘महबूबा महबूबा‘ (शोले) का जोशीला रिदम – ये धुनें सीधे दिल के तार छेड़ देती थीं। उस ज़माने में ऑर्केस्ट्रा का जीवंत इस्तेमाल, असली वाद्ययंत्रों की ध्वनि ने इन गानों को एक गहराई और गर्मजोशी दी जो आज भी कमाल करती है।
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गीतकारों का कमाल: साहिर लुधियानवी, शैलेन्द्र, मजरूह सुल्तानपुरी, गुलज़ार, जावेद अख्तर, प्रसून जोशी… इन शायरों ने सिर्फ बोल नहीं लिखे, ज़िंदगी के नज़रिए को शब्दों में पिरोया है। ‘मैं पल दो पल का शायर हूं‘ (कभी कभी) का फ़लसफ़ा हो या ‘कभी अलविदा ना कहना‘ (कल हो ना हो) का दर्द, ‘रूबरू रोशनी से’ (गाइड) का गहरा अहसास या ‘दीवानगी दीवानगी’ (रॉकस्टार) का उन्माद – ये बोल हमारी अपनी भावनाओं का आईना बन गए। उनकी सादगी, गहराई और कवित्व ने गानों को सिर्फ मनोरंजन नहीं, जीवन का साथी बना दिया।
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गायकों की आवाज़ में दम: मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, लता मंगेशकर, आशा भोसले, मुकेश, तलत महमूद से लेकर सोनू निगम, शान, अलका याग्निक, श्रेया घोषाल तक… इन आवाज़ों ने सिर्फ गाया नहीं, जान फूंक दी। किशोर दा की ‘ज़िंदगी की येही रीत है’ (मिस्टर इंडिया) में हल्की सी शरारत, लता जी की ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’ (गाइड) में उम्मीद की किरण, रफी साहब के ‘चाहूंगा मैं तुझे’ (दोस्ती) में सच्चे प्यार की गहराई… ये आवाज़ें सुनते ही आत्मा तक पहुंच जाती थीं। उनकी भाव-प्रवणता ने गानों को अमरत्व दिया।
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पर्दे पर जीवंत होते गीत: ये गाने सिर्फ कानों से नहीं, आंखों से भी चिपक गए। शर्मिला टैगोर का ‘आँखों में क्यूँ’ (अनुराधा) में नज़ारा, राजेश खन्ना का ‘ये शाम मस्तानी’ (कटी पतंग) में रूमानियत, माधुरी दीक्षित का ‘एक दो तीन’ (तेज़ाब) में चुलबुलापन, या शाहरुख खान का ‘आँखों में तेरी अजब सी अदाएं हैं ‘ (ओम शांति ओम ) में भावुकता… ये नज़ारे इन गानों से अभिन्न हो गए। निर्देशकों और कोरियोग्राफर्स ने इन्हें ऐसे दृश्यों में पिरोया कि गीत और दृश्य एक दूसरे की परिभाषा बन गए।
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“ना भूल पायेगी बॉलीवुड” – ये क्यों सच है?
क्योंकि ये गाने बॉलीवुड की रीढ़ हैं। ये उसके स्वर्णिम दौर की याद दिलाते हैं जब संगीत फिल्म की आत्मा हुआ करता था। आज भले ही रीमिक्स और रिप्रेजेंटेशन का दौर हो, लेकिन इन मूल गानों की चमक कभी फीकी नहीं पड़ी। ये क्लासिक्स हर नई पीढ़ी को खींचते हैं, उन्हें बॉलीवुड के इतिहास से रूबरू कराते हैं। फिल्म इंडस्ट्री खुद इन गानों को ‘आइकॉनिक’ मानती है, इन्हें सेलिब्रेट करती है। ‘रेडियो मिर्ची’ जैसे चैनलों के ‘गोल्डन आवर्ज़’, यूट्यूब पर इनके करोड़ों व्यूज़, शादियों और पार्टियों में इनकी धड़कन… ये सब साबित करता है कि ये गाने सिर्फ अतीत नहीं, एक जीवित परंपरा हैं। बॉलीवुड के लिए ये गाने उसकी विरासत हैं, उसकी ‘क्रेडिबिलिटी’ हैं। इन्हें भुलाना उसकी अपनी जड़ों को भुलाने जैसा होगा।
हम क्यों “ना भूल पाये”?
क्योंकि ये गाने हमारे साथ ‘बड़े’ हुए हैं। ये हमारे खुशी के पलों के साथी रहे, दुख में सहारा बने। इन्होंने हमें प्यार करना सिखाया, टूटना सिखाया, फिर उठना भी सिखाया। ये हमारे दोस्ती के गीत हैं, परिवार के साथ लॉन्ग ड्राइव के गीत हैं, कॉलेज की यादों के गीत हैं। ये हमारे जीवन का ‘साउंडट्रैक’ हैं। जब ‘ऐसा देस है मेरा’ (वीर-ज़ारा) बजता है, देशभक्ति की एक लहर दौड़ जाती है। ‘ओ पालनहारे’ (लगान) सुनकर आस्था जाग उठती है। ‘कल हो ना हो’ का टाइटल ट्रैक आज भी आंखें नम कर देता है। ये सिर्फ गीत नहीं, हमारे भावनात्मक बटन हैं।
आज के दौर में भी…
नए गाने भी आते हैं, कई हिट भी होते हैं। लेकिन उस ‘अमरत्व’ को छूना मुश्किल लगता है। शायद इसलिए कि अब गाने ‘सिंगल्स’ बन गए हैं, फिल्मों की आत्मा से उतने गहरे नहीं जुड़े। या फिर उस क्राफ्ट पर ध्यान कम हो गया है जहां धुन, बोल, गायकी और दृश्य मिलकर जादू रचते थे। पर ये पुराने गाने हमें याद दिलाते रहते हैं कि असली जादू क्या था।
समापन:
तो अगली बार जब रेडियो पर ‘ये दोस्ती’ (शोले) की शुरुआती हारमोनियम की धुन सुनाई दे, या ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ का मधुर स्वर कानों में पड़े, तो रुक जाइए। आंखें बंद कीजिए। महसूस कीजिए वो यादें, वो भावनाएं जो इस गाने के साथ जुड़ी हैं। क्योंकि ये गाने सिर्फ बॉलीवुड का इतिहास नहीं, हमारे अपने जीवन के अमूल्य पन्ने हैं। इन्हें भूल पाना नामुमकिन है। और बॉलीवुड? वो भी इन्हें कभी भूल नहीं पाएगा, क्योंकि ये उसकी आत्मा में बसी हुई वो धुनें हैं, जो हमेशा गूंजती रहेंगी… जब तक हिंदुस्तानी दिल धड़कते हैं, जब तक प्यार, दर्द, जोश और उम्मीद जैसी भावनाएं रहेंगी। ये गाने अमर हैं। हम भूल नहीं पाएंगे। बॉलीवुड भी भूल नहीं पाएगा।