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कहाँ शूट होती थीं Silent Movies? जानिए दिलचस्प लोकेशन्स

Sonaley Jain by Sonaley Jain
June 18, 2025
in 1920, 1930, Films, Hindi, old Films, Top Stories
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Movie Nurture: कहाँ शूट होती थीं Silent Movies? जानिए दिलचस्प लोकेशन्स
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हो सकता है आपने चार्ली चैपलिन की मूक फिल्में देखी हों, लेकिन क्या आप जानते हैं भारत की पहली मूक फिल्म “राजा हरिश्चंद्र” (1913) महाराष्ट्र के नासिक के एक खुले मैदान में शूट हुई थी? जब कैमरे भारी-भरकम हुआ करते थे, स्पेशल इफेक्ट्स नाम की कोई चीज़ नहीं थी, और एक सीन शूट करने में घंटों लग जाते थे। उस ज़माने में फिल्मकारों ने किन जगहों को अपना “सेट” बनाया? आइए जानते हैं उन दिलचस्प लोकेशन्स के बारे में जो भारतीय सिनेमा के जन्मदाता बने…

1. मुंबई की कोठियाँ और बैकयार्ड : असली स्टार थे यहाँ!

  • कोहिनूर स्टूडियो (दादर): दादासाहेब फाल्के के बाद, यहाँ बनी फिल्में जैसे “सावकारी पाश” (1925)। स्टूडियो असल में एक बड़ा सा बंगला था! कैमरा गार्डन में लगता, एक्टर्स वेरांडे पर डायलॉग (हावभाव से) देते।

  • चोर बाज़ार की गलियाँ (अब साउथ मुंबई): रोजमर्रा की ज़िंदगी दिखाने के लिए फिल्मकार सीधे यहाँ आ जाते। कैमरा गाड़ी पर रखकर शूटिंग! लोग हैरान होकर देखते रह जाते।

  • मालाबार हिल के बंगले: अमीरों के घरों में बने बगीचे “पार्टी सीन” के लिए परफेक्ट थे। एक्टर्स को पेड़ों के पीछे छुपकर कॉस्ट्यूम बदलना पड़ता था!

Movie Nurture: कहाँ शूट होती थीं Silent Movies? जानिए दिलचस्प लोकेशन्स

क्यों चुनी ये जगहें?
मुंबई (तब बॉम्बे) फिल्म इंडस्ट्री का दिल थी। ज़्यादातर एक्टर्स, डायरेक्टर यहीं रहते थे। ट्रांसपोर्ट का झंझट नहीं, सस्ता और सुविधाजनक!

2. हिल स्टेशन : नेचर था बेस्ट विजुअल इफेक्ट!

मानसून में मुंबई में शूटिंग नामुमकिन थी। समाधान थे ठंडे पहाड़:

  • लोनावला/खंडाला: यहाँ की झीलें, झरने और हरियाली “रोमांटिक सीन” के लिए आइडियल थीं। फिल्म “कालिया मर्दन” (1919) में कृष्ण की लीलाएँ यहीं फिल्माई गईं।

  • महाबलेश्वर: घने जंगल “एडवेंचर सीक्वेंस” के लिए। कल्पना कीजिए: हाथी पर सवार विलेन, घोड़े पर हीरो का पीछा…बिना किसी CGI के असली जंगल में!

  • दार्जिलिंग: दूर पड़ने के बावजूद, “एग्ज़ोटिक लुक” के लिए कुछ फिल्मकार यहाँ तक गए। टॉय ट्रेन और कंचनजंघा का नज़ारा फ्रेम में कैद हो जाता था।

चुनौती क्या थी?
कैमरा, लाइटिंग गियर, कॉस्ट्यूम्स ढोना बहुत मुश्किल था। पहाड़ी रास्तों पर बैलगाड़ियों में सामान लादकर ले जाया जाता!

3. राजा-महाराजाओं के महल : रियल सेट्स, रियल ग्रैंडर!

फिल्मों में “रॉयल लुक” दिखाने के लिए असली राजमहलों से बेहतर क्या हो सकता था?

  • बड़ौदा का लक्ष्मी विलास पैलेस (गुजरात): विशाल गेट्स, लंबे गलियारे, शानदार बगीचे। ये फिल्मकारों को “स्वर्ग” जैसा लगता था।

  • मैसूर पैलेस (कर्नाटक): रात के सीन में माहौल बनाने के लिए महल को हज़ारों दीयों से रोशन किया जाता था। बिजली का इंतज़ाम नहीं था ना!

  • जयपुर के हवामहल और आमेर किला: यहाँ की खिड़कियों से फिल्माए गए “पीछे मुड़कर देखना” सीन खासे मशहूर हुए।

कैसे मिलती थी परमिशन?
राजा-महाराजा फिल्मों के शौकीन थे! उन्हें अपने महल स्क्रीन पर देखना अच्छा लगता था। बदले में फिल्म कंपनी कुछ पैसे या तोहफे दे देती थी।

📌 Please Read Also –  साइलेंट सिनेमा और लोकेशन का अनोखा रिश्ता: पर्दे के पीछे की कहानी

4. धार्मिक स्थल : भीड़ और भावना का फायदा!

  • हरिद्वार/वाराणसी (घाट): गंगा आरती, साधु-संत, श्रद्धालुओं की भीड़…ये सब “क्रोड शॉट्स” के लिए फ्री में मिल जाते थे! फिल्म “भक्त विदुर” (1921) वाराणसी में बनी।

  • अजमेर शरीफ दरगाह: सूफ़ी कव्वाली के सीन यहाँ असली माहौल में फिल्माए जाते। भीड़ को “एक्स्ट्रा” का काम करने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।

  • पुरी का जगन्नाथ मंदिर (ओडिशा): रथयात्रा के दृश्यों के लिए बेहतरीन लोकेशन। लोगों का उत्साह असली था, नकली नहीं!

समस्या क्या थी?
भीड़ को कंट्रोल करना मुश्किल था। लोग कैमरा देखकर रुक जाते या पोज़ देने लगते। एक सीन के लिए घंटों इंतज़ार करना पड़ता!

5. रेलवे स्टेशन और ट्रेनें : मूवमेंट का जादू!

  • विक्टोरिया टर्मिनस (अब छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, मुंबई): विदेशी आर्किटेक्चर वाला ये स्टेशन “अंग्रेज़ी शहर” का अहसास दिलाता था। हीरो-विलेन का पीछा यहाँ खूब फिल्माया गया।

  • माथेरान की टॉय ट्रेन: छोटी सी पहाड़ी रेलगाड़ी “कॉमेडी सीन” के लिए परफेक्ट थी। एक्टर्स को गाड़ी चलते हुए उतरना-चढ़ना पड़ता था – बिना स्टंटमैन के!

  • दक्कन क्वीन रूट (पुणे-मुंबई): खिड़की से उड़ते बाल, पीछे छूटते खेत…ये “यात्रा दृश्य” ट्रेन में बैठकर ही शूट होते।

Movie Nurture: कहाँ शूट होती थीं Silent Movies? जानिए दिलचस्प लोकेशन्स

क्यों था खास?
ट्रेनों की चलती-फिरती छवि मूवीज़ में गति और एडवेंचर का अहसास दिलाती थी। आज के विमानों जैसा एक्साइटमेंट तब ट्रेनों में था!

क्यों खो गए ये लोकेशन्स?

  1. साउंड का ज़माना आया: 1934 में पहली बोलती फिल्म “आलम आरा” आई। अब शहरों के शोरगुल वाली जगहों पर डायलॉग रिकॉर्ड करना मुश्किल हो गया। स्टूडियोज़ ज़रूरी हो गए।

  2. कलर फिल्मों का चलन: प्राकृतिक लोकेशन्स के रंग असली नहीं दिखते थे। कंट्रोल्ड लाइटिंग वाले स्टूडियोज़ को तरजीह मिली।

  3. परमिशन की दिक्कतें: शूटिंग के नियम सख्त हो गए। महलों और धार्मिक स्थलों पर अब आसानी से शूटिंग नहीं हो पाती।

आज कहाँ देख सकते हैं इस इतिहास को?

  • नेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ इंडियन सिनेमा, मुंबई: यहाँ मूक फिल्मों के सेट्स की तस्वीरें और मॉडल देख सकते हैं।

  • पुराने स्टूडियोज़ के अवशेष: कोहिनूर स्टूडियो (दादर) की जगह अब बिल्डिंगें खड़ी हैं, लेकिन पुराने लोग उसकी कहानियाँ ज़रूर बताते हैं!

  • दार्जिलिंग की टॉय ट्रेन: आज भी चलती है! उस पर बैठकर आप उसी ज़माने की कल्पना कर सकते हैं।

अगली बार जब आप मुंबई के चोर बाज़ार जाएँ, दार्जिलिंग की टॉय ट्रेन में बैठें, या मैसूर पैलेस घूमें…ज़रा ठहरकर सोचिए। शायद यहीं कहीं, आपके पसंदीदा सिनेमा के दादा-परदादा (मूक फिल्में) जन्मे होंगे। बिना आवाज़ के, सिर्फ़ नज़ारों और हावभाव से पूरी दुनिया को अपना जादू दिखाने वाली वो फिल्में…जिनकी चुप्पी में छिपी है भारतीय सिनेमा की सबसे मीठी कहानी।

“फिल्में बनाने का जुनून कैमरा कितना भी भारी क्यों न हो, लोकेशन कितनी भी दूर क्यों न हो…रोक नहीं सकता। मूक फिल्मों के नायक थे – धैर्य और दृढ़ संकल्प!”
– दादासाहेब फाल्के (भारतीय सिनेमा के पितामह)

Tags: Film Shooting in 1920sHistoric Film StudiosIndian Silent CinemaSilent Era Film LocationsVintage Film Locations
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