Movie Nurture:द रोड टू सम्पो

द रोड टू सम्पो: वो बर्फीली सड़क जहाँ तीन टूटे दिल ढूँढते हैं खोया हुआ सपना

साल 1975, दक्षिण कोरिया पर सैन्य शासन की लोहे की मुट्ठी कसी हुई है। हवा में डर का सन्नाटा, आँखों में भविष्य की अनिश्चितता। ऐसे में आती है ली मान-हुई की फिल्म “द रोड टू सम्पो” (Sampo ganeun gil)। ये कोई साधारण सड़क यात्रा नहीं। ये तो उन तीन अजनबियों की कहानी है जो बर्फ से ढके पहाड़ों, ठिठुराती ठंड और अपने अतीत के भूतों के बीच, एक पौराणिक खजाने ‘सम्पो’ की तलाश में निकलते हैं – जो शायद सोना नहीं, बल्कि खोई हुई मानवता है।

Movie Nurture: द रोड टू सम्पो

तीन साथी, तीन जख्म, एक अनजान रास्ता

फिल्म की शुरुआत ही एक करारे यथार्थ से होती है:

  1. जियोंग (किम जिन-क्यू): एक बूढ़ा मजदूर। शरीर पर धूल, आँखों में थकान। जिंदगी ने उसे निचोड़कर रख दिया है। वो अपने बेटे के पास जा रहा है, जिससे वो सालों से मिला नहीं। उसकी जेब में सिर्फ थोड़े से पैसे और एक गहरा अकेलापन है।

  2. यंग-डल (बेक इल-सेओब): एक युवा निर्माण कार्यकर्ता, जिसके पास सर्दी के मौसम में काम नहीं होता। चेहरे पर मुस्कान का नकाब, पर आँखों में बेचैनी। उसके पास सिर्फ चालाकी और जीने की जिद है।

  3. बैक-ह्वा (मुन सुक): एक युवा महिला। उसके चेहरे पर एक अजीब सी बेरुखी और गहरा दर्द छुपा है। वो एक वेट्रेस है, जो अपने बीमार बच्चे के इलाज के लिए पैसे जुटाने की कोशिश में है। उसकी आँखों में माँ की चिंता और समाज से मिली हुई तिरस्कार की छाया है।

ये तीनों नहीं जानते कि उनकी मंजिल क्या है, पर जीवन की मार ने उन्हें एक बस में बिठा दिया। बर्फबारी में फंसी बस के बाद, वो पैदल चलने को मजबूर होते हैं। ठंड, भूख और थकान के बीच उनकी मुलाकात होती है एक बूढ़े आदमी से, जो उन्हें पहाड़ों के पार ‘सम्पो’ नामक जगह के बारे में बताता है – जहाँ सोना बरसता है! भूखे पेट और टूटी आशाओं के लिए ये किसी स्वप्न से कम नहीं। और फिर शुरू होती है उनकी खतरनाक, अविश्वसनीय यात्रा।

बर्फ में धँसते कदम, दिलों में पिघलती बर्फ

ये यात्रा सिर्फ भौगोलिक नहीं। ये एक भावनात्मक और आत्मिक सफर है। किम की-योंग की दिशा में ये सफर धीरे-धीरे खुलता है:

  • अविश्वास से विश्वास तक: शुरू में तीनों एक-दूसरे पर शक करते हैं। योंग-दल ताई-हो की चालाकी से डरता है। सोंग-ह्वा सबसे दूरी बनाए रखती है। ताई-हो हर किसी को फायदे की नजर से देखता है। पर बर्फीले तूफ़ान में, एक छोटी सी झोपड़ी में आग सेंकते हुए, जब जान जोखिम में हो, तो दीवारें गिरने लगती हैं। एक बोतल दारू को आपस में बाँटना, भूखे पेट के लिए रोटी का टुकड़ा तलाशना – ये छोटे-छोटे पल उनके बीच एक अदृश्य बंधन बुनते हैं।

  • अपनी कहानियाँ: जख्मों का सामना: यात्रा के दौरान वो अपने दर्द बाँटते हैं। योंग-दल बताता है कि कैसे उसका बेटा उसे भूल गया। सोंग-ह्वा रोती हुई बताती है कि कैसे समाज ने उसे नीचा देखा, उसके बच्चे को भी उसकी वजह से तिरस्कार झेलना पड़ा। ताई-हो का जीवन भी बेकार के जुए और भागने की कहानियों से भरा है। अपने दुख सुनाकर वो एक-दूसरे के दर्द को समझने लगते हैं। ये कबूल करना कि वो सब टूटे हुए हैं, ही उन्हें जोड़ता है।

  • सम्पो: सपना या मृगतृष्णा? ‘सम्पो’ पूरी फिल्म में एक रहस्य बना रहता है। क्या वाकई ऐसी जगह है? या ये सिर्फ एक माया है, जीवन की कठिनाइयों से भागने का बहाना? फिल्म इसे स्पष्ट नहीं करती। शायद ‘सम्पो’ की खोज का असली मकसद था खुद को खोजना, एक-दूसरे में इंसानियत को पहचानना। बर्फीले बियाबान में वो जो साथ, सहानुभूति और त्याग पाते हैं, वही असली खजाना है।

Movie Nurture: द रोड टू सम्पो

सादगी में छिपी गहराई: फिल्मांकन और प्रतीक

“द रोड टू सम्पो” विशेष प्रभावों वाली फिल्म नहीं। इसकी ताकत है इसकी कच्ची, अकृत्रिम सुंदरता में:

  • श्वेत-श्याम का जादू: फिल्म का श्वेत-श्याम होना कोई कमी नहीं, बल्कि इसकी ताकत है। बर्फ से ढके विशाल पहाड़, अंतहीन सफेद मैदान, काले पेड़ों की रेखाएँ – ये दृश्य एक भावनात्मक लैंडस्केप बनाते हैं। ठंड की सफेदी जहाँ निराशा दिखाती है, वहीं आशा की किरण भी बन जाती है। काला-सफेद यथार्थ के कठोर विरोधाभासों को भी दर्शाता है।

  • लंबे शॉट्स और खामोशी: निर्देशक लंबे-लंबे शॉट्स का इस्तेमाल करता है। तीनों चरित्र बर्फ में धीरे-धीरे चलते दिखाई देते हैं, छोटे से फ्रेम में। इन शॉट्स में खामोशी का बहुत महत्व है। ये खामोशी उनकी थकान, उनकी सोच, उनके अकेलेपन और उनके बीच बनते नए रिश्ते की भाषा बन जाती है। संवाद कम हैं, पर परदे पर जो चल रहा है, वो कहीं गहरा असर छोड़ता है।

  • प्रतीकात्मकता: बर्फ सिर्फ मौसम नहीं, जीवन की कठोरता और भावनाओं के जम जाने का प्रतीक है। झोपड़ी में जलती आग उम्मीद और मानवीय गर्माहट का प्रतीक है। ‘सम्पो’ स्वयं एक प्रतीक है – खोए हुए स्वप्न, पूर्णता की तलाश, या शायद खुद स्वतंत्रता का।

यथार्थवाद का करारा प्रहार

“द रोड टू सम्पो” एक कोरियाई नई लहर (Korean New Wave) की अहम फिल्म है। ये सैन्य शासन के दौरान आम आदमी की पीड़ा, आर्थिक तंगी, सामाजिक विषमता और राजनीतिक दमन पर करारा यथार्थवादी प्रहार है:

  • शोषित वर्ग की त्रासदी: तीनों मुख्य पात्र समाज के निचले तबके से आते हैं। फिल्म बिना लाग-लपेट के दिखाती है कि कैसे व्यवस्था इन्हें कुचलती है, इन्हें जीने के लिए गंदे रास्ते चुनने पर मजबूर करती है। योंग-दल का बेटा उसे भूल गया, जो पारंपरिक मूल्यों के टूटने का संकेत है।

  • आशा का व्यापार: ‘सम्पो’ का खजाना इन गरीब, हताश लोगों के सामने लटकाया गया एक गाजर है। ये उस सिस्टम की ओर इशारा करता है जो झूठे सपने दिखाकर लोगों का शोषण करता है या उन्हें भटकाता है।

  • मानवीय संबंधों की ताकत: इतनी क्रूरता के बीच भी, फिल्म ये नहीं भूलती कि मानवीय सहानुभूति, साथ और प्रेम ही वो ताकत है जो इंसान को जिंदा रखती है। तीनों का आपसी बंधन ही उनकी असली जीत है, चाहे उन्हें सम्पो मिले या न मिले।

Movie Nurture: द रोड टू सम्पो

अंत: एक विभाजन और एक सवाल

फिल्म का अंत कटु यथार्थ से भरा है। क्या वो सम्पो पहुँचे? शायद हाँ, शायद नहीं। पर उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उनकी यात्रा का अंत कैसे होता है। वो पल जब उन्हें अपने-अपने रास्ते जाना होता है, बेहद मार्मिक है। वो एक-दूसरे से जुड़ गए थे, पर जीवन की कठोर सच्चाई उन्हें फिर से अलग कर देती है।

अंतिम दृश्य में, डल अकेला बर्फीले मैदान में चलता दिखाई देता है, पीछे मुड़कर देखता है। उस नजर में क्या है? अफसोस? यादें? या फिर जीवन के आगे बढ़ जाने का एहसास? ये सवाल दर्शक के मन में हमेशा के लिए अटक जाता है।

विरासत: एक कालजयी यात्रा

आधी सदी बाद भी, “द रोड टू सम्पो” अपनी शक्ति नहीं खोती। ये फिल्म है:

  • मानवीय संघर्ष और प्रतिरोध का मार्मिक चित्रण।

  • यथार्थवाद और प्रतीकात्मकता का अनूठा मेल।

  • अभिनय की वह सादगी जो दिल को छू ले (बेक इल-सेओब, किम जिन-क्यू और मून सूक की भूमिकाएँ अविस्मरणीय हैं)।

  • एक ऐसी यात्रा जो बाहर की दुनिया से कम, भीतर की दुनिया में ज्यादा होती है।

  • उस कोरिया की कहानी जो चमकदार विकास के नीचे दबे दर्द और टूटन को दर्शाती है।

ये फिल्म सिर्फ कोरिया की नहीं। ये हर उस समाज की कहानी है जहाँ आम आदमी व्यवस्था के बोझ तले दबा हुआ है, पर फिर भी मानवीय रिश्तों की गर्माहट में जीने की उम्मीद ढूँढ लेता है। “द रोड टू सम्पो” को देखना एक अनुभव से गुजरना है – ठंडे पहाड़ों की सैर पर निकलना, जहाँ राह में मिलता है इंसानियत का दर्द, संघर्ष और एक अटूट जिजीविषा। ये फिल्म आपको ठिठुराती ठंड में भीगो सकती है, पर अंत में दिल में एक अजीब सी गर्मी भी छोड़ जाती है – वो गर्मी जो कहती है कि चाहे रास्ता कितना भी कठिन क्यों न हो, साथ चलने वाला एक हाथ ही शायद जीवन का असली ‘सम्पो’ है।

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