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मयूरा (1975): कन्नड़ सिनेमा का वो ऐतिहासिक रत्न जिसने गढ़ी नई परंपरा

by Sonaley Jain
April 9, 2025
in 1970, Films, Hindi, Kannada, Movie Review, old Films, Top Stories
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Movie Nnurture: मयूरा (1975): कन्नड़ सिनेमा का वो ऐतिहासिक रत्न जिसने गढ़ी नई परंपरा
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साल 1975 भारतीय सिनेमा में ऐतिहासिक फिल्मों का दौर चल रहा था। हिंदी में “शोले” का जलवा था, तो दक्षिण में कन्नड़ सिनेमा ने भी एक ऐसी फिल्म बनाई जिसने न सिर्फ़ इतिहास को ज़िंदा किया, बल्कि दर्शकों के दिल में “मयूरा” के नाम से अमर हो गई। यह फिल्म सिर्फ़ एक कहानी नहीं, बल्कि कर्नाटक के गौरवशाली अतीत का वो सिनेमाई जश्न है, जिसमें डॉ. राजकुमार ने अपने अभिनय से इतिहास को सांसें दीं। आइए, जाने इस महाकाव्य की गहराइयों को…

Movie Nurture: मयूरा (1975): कन्नड़ सिनेमा का वो ऐतिहासिक रत्न जिसने गढ़ी नई परंपरा

कहानी: जब एक ब्राह्मण ने बदल दिया इतिहास का रुख़

फिल्म की शुरुआत होती है 4वीं सदी के भारत से। मयूरशर्मा (डॉ. राजकुमार), एक विद्वान ब्राह्मण, जो पल्लव साम्राज्य के राजकुमार को एक कुश्ती में हरा देता है और दुश्मनी मोल लेता है। मयूर को कांची छोड़ने पर मज़बूर होना पड़ता है और उसको पता चलता है कि वह असल में कदंब राजा राजा चंद्रवर्मा का पुत्र है, जिन्हे पल्लव राजा शिवस्कंधवर्मा ने धोखे से मार दिया था। यहीं से शुरू होता है मयूरशर्मा का विद्रोह। वह संकल्प लेता है: “ब्राह्मणत्व को शस्त्र उठाने पड़ेंगे, तो उठाऊंगा!”

  • ऐतिहासिक सफर: मयूरशर्मा ने कदंब राजवंश की स्थापना की, जो कर्नाटक का पहला स्वदेशी साम्राज्य था। फिल्म दिखाती है कि कैसे एक विद्वान ने योद्धा बनकर पल्लवों को चुनौती दी।
  • भावनात्मक पल: मयूरशर्मा का अपने गुरु (एम.पी. शंकर) के साथ संघर्ष, प्रेमिका (मंजुला) का साथ, और मातृभूमि के प्रति समर्पण—सब कुछ एक साथ बुना गया है।

यादगार दृश्य: जब मयूरशर्मा पहली बार तलवार उठाता है, तो पृष्ठभूमि में गूँजता है भव्य ऑर्केस्ट्रा। यह सीन नायक के अंतर्मन के उथल-पुथल को दर्शाता है।

डॉ. राजकुमार: वो अभिनेता जिसने इतिहास को दिया नया चेहरा

डॉ. राजकुमार ने मयूरशर्मा का किरदार निभाया, और यह उनके करियर के सबसे यादगार रोल्स में से एक बन गया।

  • शिष्टाचार से शक्ति तक: पहले भाग में वह शांत, ज्ञानी ब्राह्मण हैं—उनकी आवाज़ में विनम्रता और आँखों में तेज। बाद के दृश्यों में जब वह योद्धा बनते हैं, तो उनकी मुद्रा और डायलॉग डिलिवरी में बदलाव साफ़ दिखता है।
  • संवाद अदायगी: “विद्या दान महादान, किंतु स्वाभिमान से बड़ा कोई धर्म नहीं!” जैसे संवादों को उन्होंने इतनी ताकत दी कि दर्शक खड़े होकर ताली बजाने लगते थे।
  • एक्शन सीन्स: 1970 के दशक में स्पेशल इफेक्ट्स नहीं थे, मगर राजकुमार की तलवारबाज़ी और घुड़सवारी के दृश्य आज भी प्रासंगिक लगते हैं।

रोचक तथ्य: फिल्म की शूटिंग के दौरान राजकुमार ने खुद को चोटिल कर लिया था, मगर उन्होंने ब्रेक नहीं लिया। यह समर्पण पर्दे पर झलकता है।

Movie Nurture: मयूरा (1975): कन्नड़ सिनेमा का वो ऐतिहासिक रत्न जिसने गढ़ी नई परंपरा

निर्देशन और तकनीक: विजय की महाकाव्य दृष्टि

निर्देशक विजय ने इस फिल्म को सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ बनाया।

  • सेट डिज़ाइन: पल्लव राजदरबार की भव्यता, प्राचीन मंदिर, और युद्ध के मैदान—हर सेट पर शोध की छाप थी। कहा जाता है कि विजय ने इतिहासकारों से सलाह लेकर हर विवरण को असली बनाया।
  • सिनेमैटोग्राफी: उस दौर में रंगीन फिल्में नई थीं, मगर “मयूरा” के रंग ने कहानी को जीवंत कर दिया। खासकर युद्ध के दृश्यों में लाल और सुनहरे रंगों का प्रयोग प्रभावशाली है।
  • कॉस्ट्यूम: मयूरशर्मा का साधारण ब्राह्मण वस्त्र से राजसी कवच तक का सफर कपड़ों के माध्यम से दिखाया गया। जयललिता के पारंपरिक कन्नड़ परिधान आज भी फैशन का हिस्सा हैं।

संगीत: जी. के. वेंकटेश का सुरीला जादू

फिल्म का संगीत जी. के. वेंकटेश ने दिया, और यह उनके करियर का सर्वश्रेष्ठ काम माना जाता है।

  • भक्ति और शक्ति का मेल: गाने “श्री गणेश देवा” में भक्ति भाव है, तो “कदंबा वंशवा दीपवमा” में राजसी ठाठ।
  • लोक संगीत का प्रभाव: गीत “होवु हुवु मयूर” में ढोल और शहनाई का उपयोग कर कर्नाटक के लोक संगीत को पर्दे पर उतारा गया।
  • राजकुमार की आवाज़: डॉ. राजकुमार ने खुद कुछ गाने गाए, जिनमें उनकी बेमिसाल बैरिटोन आवाज़ ने संगीत को और समृद्ध किया।

यादगार पल: जब मयूरशर्मा युद्ध के मैदान में घोड़े पर सवार होकर “कदंबा वंशवा…” गाता है, तो दर्शकों का खून खौल उठता है।

सहायक कलाकार: वो चेहरे जिन्होंने बनाया इतिहास

  • मंजुला: फिल्म में उनका रोल छोटा है, मगर उनकी मासूमियत और संवाद अदायगी ने प्रेम कहानी को सहज बनाया।
  • एम.पी. शंकर (गुरु का रोल): उनके और मयूरशर्मा के बीच का टकराव—जहाँ गुरु शिष्य को अहिंसा का पाठ पढ़ाता है, लेकिन शिष्य स्वाभिमान के लिए हथियार उठाने को मजबूर है—दर्शकों को झकझोर देता है।
  • पल्लव राजा (राजानंद ): उनका अहंकारी अभिनय याद दिलाता है कि “सत्ता का नशा इंसान को अंधा बना देता है।”

ऐतिहासिक सच्चाई vs. कल्पना

फिल्म ने इतिहास को थोड़ा रचनात्मक स्वतंत्रता दी है। जैसे:

  • मयूरशर्मा के विद्रोह का कारण सिर्फ़ पगड़ी का अपमान नहीं, बल्कि पल्लवों का ब्राह्मणों के प्रति भेदभाव था।
  • कदंब राजवंश की स्थापना में कई वर्ष लगे, लेकिन फिल्म में इसे एक नाटकीय युद्ध के माध्यम से दिखाया गया।
  • फिल्म के अंत में मयूरशर्मा की विजय को एक “राष्ट्रीय जीत” के रूप में प्रस्तुत किया गया, जो उस समय के राष्ट्रवादी भावनाओं को दर्शाता है।

विरासत: आज भी क्यों ज़िंदा है ‘मयूर’?

  1. सांस्कृतिक गर्व: यह फिल्म कर्नाटक के लोगों को उनके इतिहास पर गर्व करना सिखाती है। आज भी राज्य में “कदंब उत्सव” मनाया जाता है।
  2. टेक्निकल माइलस्टोन: 1975 में इतने बड़े स्केल की फिल्म बनाना चुनौतीपूर्ण था। यह फिल्म कन्नड़ सिनेमा की तकनीकी क्षमता का प्रमाण बनी।
  3. राजकुमार का कल्ट स्टेटस: डॉ. राजकुमार के प्रशंसक आज भी इस फिल्म को उनकी “सर्वश्रेष्ठ ऐतिहासिक भूमिका” मानते हैं।

रोचक बात: 2022 में, कर्नाटक सरकार ने “मयूर” को राज्य की सांस्कृतिक धरोहर घोषित किया और इसके डिजिटल रिस्टोरेशन की घोषणा की।

Movie Nurture: मयूरा (1975): कन्नड़ सिनेमा का वो ऐतिहासिक रत्न जिसने गढ़ी नई परंपरा

आलोचना: कमियाँ जो नज़रअंदाज़ नहीं की जा सकतीं

  • महिला पात्रों की सीमित भूमिका: जयललिता के किरदार को सिर्फ़ प्रेमिका तक सीमित रखा गया, जबकि इतिहास में कदंब राजवंश की महिलाओं का भी योगदान था।
  • लंबाई: 3 घंटे की फिल्म कुछ दृश्यों में धीमी लगती है, खासकर दार्शनिक संवादों वाले हिस्से।
  • सांस्कृतिक स्टीरियोटाइप: पल्लवों को “खलनायक” दिखाने के चक्कर में उनके योगदान (जैसे मंदिर वास्तुकला) को नज़रअंदाज़ किया गया।

निष्कर्ष: इतिहास को सिनेमा की भाषा में बयान करने वाली अमर कृति

“मयूरा” सिर्फ़ एक फिल्म नहीं, बल्कि कन्नड़ अस्मिता का प्रतीक है। यह हमें याद दिलाती है कि इतिहास कोरा बोरिंग विवरण नहीं, बल्कि जीवंत संघर्षों की गाथा है। आज के दौर में जब ऐतिहासिक फिल्में VFX और बजट के भरोसे टिकी हैं, “मयूरा” सिखाती है कि कहानी और अभिनय ही असली जादू है।

अंतिम पंक्तियाँ: अगर आप कभी कर्नाटक जाएँ, तो बनवासी (कदंब साम्राज्य की प्राचीन राजधानी) के खंडहर देखने ज़रूर जाएँ। शायद आपको वहाँ मयूरशर्मा की तलवार की झनझनाहट सुनाई दे… या फिर डॉ. राजकुमार का स्वर गूँजता हुआ। क्योंकि सिनेमा और इतिहास की यह जुगलबंदी कभी नहीं मरती।

इस फिल्म का वह डायलॉग याद रखिएगा— “इतिहास उन्हें याद रखता है जो अपने स्वाभिमान के लिए लड़ते हैं।” शायद यही “मयूरा” की सबसे बड़ी विरासत है।

Tags: ऐतिहासिक फिल्मकन्नड़ सिनेमाक्लासिक फिल्मराजकुमारसिनेमा पर प्रभावसैंडलवुड
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