रस्सी, धुआं और आईने: साइलेंट फिल्मों के स्पेशल इफेक्ट्स के सीक्रेट जुगाड़

Movie Nurture:रस्सी, धुआं और आईने: साइलेंट फिल्मों के स्पेशल इफेक्ट्स के सीक्रेट जुगाड़

आज से करीब बीस-पच्चीस साल पहले की बात है।  मुंबई के एक पुराने फिल्म आर्काइव में गहरी धूल दिख रही थी। कागजों के ढेर, खस्ता नेगेटिव्स और टूटी हुई फिल्म रीलों के बीच मेरे हाथ एक डायरी पर टिक गए। यह कोई स्टार या डायरेक्टर की नहीं, बल्कि एक अनजान ‘इफेक्ट्स मैन’ की डायरी थी, जिसमें उसने अपने हिसाब से कुछ नोट्स बनाए थे: “कल फिर से वही उलझन। कैप्टन को जहाज के मस्तूल से उड़ाना है। रस्सी चमक रही है लाइट में। काला पेंट खत्म। क्या करूं? आखिरकार बाबू मियां ने सुझाया – रस्सी पर कोयले का पाउडर मल लो। काम चल गया।”

इस छोटी सी एंट्री ने मुझे झकझोर दिया। यही तो थी असली ‘Behind the scene’ की कहानी। यही था वो सिनेमाई जुगाड़, वो ‘जुगाड़’, जिसने पर्दे पर चमत्कार रचे। आज के दौर में जहां स्पेशल इफेक्ट्स का मतलब कंप्यूटर की हरी स्क्रीन और कल्पना की उड़ान है, वहीं सौ साल पहले यही काम करते थे रस्सी, धुआं और आईने।

 पुराने स्टूडियो के खंडहरों में वो रस्सियां ढूंढी हैं जो कभी सुपरहीरो को उड़ाती थीं; जिसने उस धुएं की गंध को महसूस किया है जो परियों को प्रकट करता था; और जिसने उन आईनों को साफ किया है जिनमें महलों के प्रतिबिंब बसते थे। यह लेख सिर्फ जानकारी नहीं, एक अनुभव है। आइए, चलते हैं उस ‘Behind the scene’ की दुनिया में, जहां हर शॉट एक इंजीनियरिंग मिरेकल था और हर इफेक्ट एक हाथ से बुना हुआ सपना।

वह दौर जब ‘कट’ और ‘एक्शन’ के बीच छुपा था पूरा विज्ञान

1900 से 1920 का दशक। सिनेमा अभी बोलना नहीं सीखा था, लेकिन दर्शकों को चौंकाने की भूख उससे कहीं ज्यादा थी। आप सोच रहे होंगे, बिना डायलॉग के लोग फिल्में क्यों देखते होंगे? जवाब है – ‘दृश्य चमत्कार’ यानी विजुअल स्पेक्टेकल। और यहीं से शुरू होती है ‘Behind the scene’ की वह पारंगत कहानी, जो आज के स्पेशल इफेक्ट्स सुपरवाइजर से कहीं ज्यादा मेहनत मांगती थी।

उस जमाने के फिल्मकार दरअसल, आधे कलाकार और आधे इंजीनियर थे। उनके पास कोई प्री-मेड सॉफ्टवेयर नहीं था, न ही यूट्यूब पर ट्यूटोरियल। थी तो सिर्फ एक समस्या – “कैसे दिखाएं कि यह आदमी चंद्रमा पर जा रहा है?” और समाधान ढूंढना पड़ता था रस्सी, धुएं और आईने के जरिए। यह तीनों चीजें उनके टूलकिट का वह बेसिक सेट थीं, जिससे वो हर तरह के जादू की रचना कर सकते थे। इन्हीं के सहारे वो अपनी ‘स्पेशल इफेक्ट्स टीम’ का काम चलाते थे, जिसमें नाई से लेकर कारपेंटर तक शामिल होते थे।

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पहला जुगाड़: रस्सी – वह अनकही हीरोइन जो सब कुछ उड़ा देती थी

आज अगर सुपरमैन उड़ता है, तो उसकी उड़ान के ‘Behind the scene’ में मोशन कैप्चर और वायर रिमूवल का काम होता है। उस जमाने में सुपरमैन नहीं, बल्कि कोई भी किरदार उड़ना चाहता, तो उसकी पहली और आखिरी उम्मीद होती थी – एक मजबूत रस्सी। लेकिन यह रस्सी सिर्फ उड़ाने का काम नहीं करती थी। यह एक ऐसा बहुमुखी टूल थी, जिसके इस्तेमाल के तरीके हैरान कर देने वाले थे।

1. द फ्लाइंग एक्ट: हवा में तैरते इंसान
सबसे पहला और मुश्किल काम था एक्टर को हवा में लटकाना। इसके लिए बनाया जाता था एक खास तरह का ‘हार्नेस’। यह हार्नेस अक्सर मोटे चमड़े का होता, जिसे एक्टर के कोट या पोशाक के अंदर पहनाया जाता। इस हार्नेस से जुड़ी होतीं कई पतली, मजबूत रस्सियां। यहां ‘Behind the scene’ का पहला राज आता है: रस्सी का रंग। अगर शॉट ब्लैक एंड व्हाइट है, तो रस्सी को हमेशा काले रंग से रंगा जाता। क्यों? ताकि वह स्टूडियो के काले बैकड्रॉप में ‘गायब’ हो जाए। रस्सियों को स्टूडियो की छत पर लगी जटिल पुली सिस्टम से गुजारा जाता। छत पर या छुपे हुए प्लेटफॉर्म पर बैठे ऑपरेटर इन रस्सियों को हल्के से खींचते-ढीला करते, और नीचे कैमरे के सामने एक्टर हवा में तैरता, झूलता नजर आता।

मैंने एक बार 1916 की एक फ्रेंच फिल्म के सेट के नोट्स पढ़े थे। उसमें लिखा था कि परी को उड़ाते समय रस्सी के झटके से एक्ट्रेस की पसली में चोट आ गई। तब डायरेक्टर ने क्या किया? उसने रस्सियों की संख्या बढ़ा दी, ताकि भार बंट जाए। यही था ‘Behind the scene’ का असली संघर्ष – सुरक्षा और भ्रम के बीच संतुलन बनाना।

2. मिनिएचर मैजिक: रस्सियों से चलते थे पूरे शहर
समुद्री जहाज डूबना हो, पुल टूटना हो, या इमारत ढहनी हो – असली साइज में तो यह सब फिल्माना असंभव था। इसलिए बनाए जाते थे विस्तृत मिनिएचर मॉडल। लेकिन सिर्फ मॉडल बना देने से काम नहीं चलता था, उन्हें हिलाना-डुलाना, तोड़ना भी था। यहीं फिर से आ जाती थी रस्सी की भूमिका। मॉडल के अलग-अलग हिस्सों से बारीक, मजबूत रस्सियां बांधकर, तकनीशियन उन्हें हाथ से खींचते। इस तरह जहाज का मस्तूल टूटकर गिरता दिखता, या इमारत का एक हिस्सा अलग होता नजर आता।

इसकी सबसे बड़ी चुनौती थी ‘स्केल’ यानी पैमाना। अगर मॉडल छोटा है और रस्सी मोटी, तो कैमरा पकड़ लेगा। इसलिए इस्तेमाल होती थीं घोड़े के बाल या रेशम के बेहद बारीक धागे। कई बार एक ही शॉट में मिनिएचर मॉडल और असली एक्टर को एक साथ दिखाना होता था। इसके लिए ‘फोर्स्ड परस्पेक्टिव’ तकनीक का इस्तेमाल होता। मतलब, कैमरा को एक ऐसे खास एंगल पर रखा जाता कि दूर रखा छोटा मॉडल, पास खड़े एक्टर के पीछे विशालकाय नजर आए। इस पूरे ऑपरेशन के ‘Behind the scene’ में दर्जनों रस्सियां, धागे और दस-बारह तकनीशियन एक साथ काम करते, बिल्कुल एक ऑर्केस्ट्रा की तरह।

3. शैडो प्ले और अदृश्य खिंचाव
रस्सी का एक और शानदार इस्तेमाल था ‘ऑब्जेक्ट्स मूविंग ऑन देयर ओन’ यानी चीजों का अपने आप हिलना दिखाना। किसी भूतिया कमरे में किताब अपने आप उड़कर शेल्फ से गिरे, या कुरसी खिसके – यह सब रस्सियों के जरिए ही होता। रस्सी को काली पोशाक पहने एक सहायक हाथ से खींचता, और कैमरे के एंगल को ऐसे सेट किया जाता कि वह सहायक दिखाई न दे। कई बार रस्सी की जगह लोहे की पतली, लचीली रॉड्स का भी इस्तेमाल होता, ताकि ऑब्जेक्ट को सटीक दिशा में धकेला जा सके।

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दूसरा जुगाड़: धुआं – वह जादूई पर्दा जो सब कुछ छुपा और प्रकट कर देता

अगर रस्सी ने चीजों को गति दी, तो धुएं ने उन्हें रहस्य, भावना और एक परलौकिक आवरण दिया। धुआं सिर्फ वातावरण बनाने वाला तत्व नहीं था; वह एक ऐक्टिव किरदार था। वह गायब कर सकता था, प्रकट कर सकता था, आकार बदल सकता था। लेकिन इसके ‘Behind the scene’ में भी कई राज छुपे थे।

1. डिसअपियर एंड अपियर: धुएं में विलीन होते किरदार
किसी जादूगर के हाथ का गेंद गायब होना या भूत का अचानक प्रकट होना – यह सबसे पसंदीदा इफेक्ट्स में से था। इसके लिए दो मुख्य तरीके थे। पहला था ‘स्टॉप ट्रिक’। कैमरा रोक दिया जाता, एक्टर फ्रेम से हट जाता, और कैमरा फिर शुरू कर दिया जाता। लेकिन यह तरीका अचानकपन नहीं दिखा पाता था। यहीं धुएं ने अपनी भूमिका निभाई। एक्टर को घने धुएं के बीच खड़ा किया जाता। फिर, या तो स्टॉप ट्रिक का इस्तेमाल होता, या फिर एक्टर धुएं के घने बादल का फायदा उठाकर तेजी से फ्रेम से बाहर निकल जाता। कैमरे पर ऐसा दिखता मानो वह धुएं में ही घुल-मिल गया।

धुएं का उत्पादन भी एक कला थी। आमतौर पर ड्राई आइस (ठोस कार्बन डाईऑक्साइड) को गर्म पानी में डालकर भारी, जमीन पर रेंगता हुआ सफेद धुआं बनाया जाता। इसे कंट्रोल करना सबसे मुश्किल काम था। हवा का एक झोंका भी पूरा शॉट बर्बाद कर सकता था। इसलिए स्टूडियो के पंखे बंद कर दिए जाते, और दरवाजे-खिड़कियां बंद रहतीं। ‘Behind the scene’ में धुएं के झोंके देखकर लगता था जैसे कोई जीवित प्राणी सेट पर विचर रहा है।

2. ड्रीम सीक्वेंस और एटमॉस्फियर का निर्माण
साइलेंट फिल्मों में संवाद न होने के कारण, मूड और एटमॉस्फियर बनाने की जिम्मेदारी पूरी तरह विजुअल्स पर थी। यहां धुआं एक पेंटर की तरह काम करता। हल्का, फैलता हुआ धुआं किसी सपने, याद या भविष्यवाणी के दृश्य को एक स्वप्निल गुणवत्ता दे देता। लेकिन इसका सबसे शानदार इस्तेमाल था ‘लाइट बीम्स’ के साथ। जब प्रबल रोशनी की किरणें धुएं से भरे सेट से गुजरतीं, तो वो स्पष्ट, ठोस बीम के रूप में दिखाई देतीं। इन बीम्स को अलग-अलग शेप्स के स्टेंसिल से गुजारकर, दीवारों पर भयानक या दिव्य आकृतियाँ बनाई जा सकती थीं। एक तरह से, धुआं ही वह स्क्रीन था जिस पर लाइटिंग की मदद से एनिमेटेड इफेक्ट्स बनाए जाते थे। आज के डिजिटल ‘वॉल्यूमेट्रिक लाइटिंग’ का यही प्रैक्टिकल पूर्वज था।

3. धुआं: द नेचुरल मास्क
कई बार सेट पर कोई गड़बड़ी हो जाती – जैसे कोई सहायक अनजाने में फ्रेम में आ गया, या कोई उपकरण दिख रहा था। उसे हटाने का समय नहीं था। तब क्या करते? उस जगह पर हल्का धुआं छोड़ देते। कैमरे में वह हिस्सा धुंधला हो जाता और दोष छुप जाता। यह एक प्राकृतिक ‘रिटचिंग’ थी।

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तीसरा और सबसे चालाक जुगाड़: आईना – ऑप्टिकल छल का बादशाह

अगर रस्सी और धुआं भौतिक दुनिया के जुगाड़ थे, तो आईना दर्शन और भ्रम की दुनिया का सुल्तान था। यह वह टूल था जो सीधे कैमरे के लेंस और दर्शक की आँखों के साथ खेलता था। इसके इस्तेमाल के लिए गहरी ऑप्टिकल समझ और एक चित्रकार की सूक्ष्म दृष्टि चाहिए होती थी।

1. शैडो प्लेट / मैट पेंटिंग: आईने पर बसते थे महल
यह शायद साइलेंट सिनेमा का सबसे जीनियस ‘Behind the scene’ तरीका था। कल्पना कीजिए, आपको अपने हीरो को एक भव्य राजमहल के सामने खड़ा दिखाना है, लेकिन बजट सिर्फ एक कमरे के सेट का है। क्या करेंगे?

  • सबसे पहले, एक बहुत बड़ा, बिलकुल साफ शीशा लिया जाता।

  • इस शीशे को कैमरे और एक्टर के बीच में, एक खास कोण पर ऐसे टिकाया जाता कि कैमरे को शीशे में एक्टर का प्रतिबिंब दिखाई दे, लेकिन शीशे के पीछे का असली सेट न दिखे।

  • अब, इस शीशे के ऊपर, एक कलाकार (जिसे ‘मैट पेंटर’ कहते) उस भव्य महल की डिटेल्ड पेंटिंग बना देता। लेकिन यह पेंटिंग साधारण नहीं होती। वह उसी परफेक्ट एंगल से बनाई जाती, जिससे कैमरा देख रहा है।

  • नतीजा? कैमरा एक ही फ्रेम में, शीशे पर बने महल की पेंटिंग और शीशे में परावर्तित असली एक्टर को एक साथ रिकॉर्ड कर लेता। स्क्रीन पर ऐसा लगता जैसे एक्टर सचमुच उस महल के सामने खड़ा है!

इस तकनीक की सबसे बड़ी चुनौती थी ‘परफेक्ट अलाइनमेंट’। शीशे का कोण, कैमरे का पोजिशन और पेंटिंग का परस्पेक्टिव – एक इंच का भी फर्क पूरा भ्रम तोड़ देता। फिर भी, इसी तकनीक से चाँद पर जाना, समुद्र के बीचोंबीच खड़े होना, या प्राचीन शहरों में घूमना संभव हुआ। यह आज के ‘ग्रीन स्क्रीन’ तकनीक का सीधा और बेहद कलात्मक पूर्वज था।

2. पीप-होल एंड ब्लैक बैकिंग: अदृश्य का विज्ञान
किसी भूत को दीवार से निकलते दिखाना हो तो? इसके लिए एक दीवार के एक हिस्से को हटाकर उसकी जगह काले मखमल का पर्दा लगा दिया जाता। एक्टर उस काले पर्दे के ठीक पीछे से शुरू करता और धीरे-धीरे उस काले हिस्से से ‘बाहर’ आता, यानी फ्रेम में दाखिल होता। कैमरे के लिए काला मखमल और काली पोशाक में एक्टर का शरीर अलग-अलग दिखाई नहीं देता था, इसलिए ऐसा लगता जैसे वह दीवार के पत्थरों से बाहर आ रहा है।

आईने का एक और शानदार इस्तेमाल था ‘सेल्फ-इंटरेक्शन’। एक ही एक्टर को खुद से बात करते दिखाने के लिए, एक आईने का इस्तेमाल होता। एक्टर आईने के सामने खड़ा होता और उसके रिफ्लेक्शन से बातचीत करता। लेकिन ट्रिक यह थी कि आईने में दिख रहा प्रतिबिंब असल में एक और एक्टर होता, जो बिलकुल समान कॉस्टयूम और मेकअप में होता और आईने के पीछे छुपे सेट पर एक्टिंग कर रहा होता। दोनों के मूवमेंट को सिंक्रोनाइज करना ही असली ‘Behind the scene’ का कमाल था।

3. मल्टीपल एक्सपोजर: एक फ्रेम में कई दुनियाएं
कैमरे का शटर खोलकर, एक ही फिल्म रील पर एक से ज्यादा बार छवि डालना – यह तकनीक भी आईनों और सटीक कैलकुलेशन पर निर्भर करती थी। पहले एक दृश्य फिल्माया जाता, फिर रील को वापस घुमाकर (रिवाइंड करके) दूसरा दृश्य उसी पर एक्सपोज किया जाता। इससे भूतिया छवियां बनतीं या एक ही एक्टर एक साथ दो जगह दिखाई देता। इसके लिए एक्टर के हर पोज और कैमरा एंगल का सटीक रिकॉर्ड रखना पड़ता था, ताकि दोनों एक्सपोजर सही जगह मिलें। यह आज के ‘क्लोनिंग’ इफेक्ट की नींव थी।

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मास्टर ऑफ इल्यूजन: जॉर्ज मेलिएस और उनका जादुई सिनेमा

इन तकनीकों का सबसे बड़ा और साहसिक इस्तेमाल करने वाले थे फ्रांस के जॉर्ज मेलिएस। एक जादूगर होने के नाते, वह सिनेमा को जादू का एक नया माध्यम समझते थे। उनकी फिल्म ‘ए ट्रिप टू द मून’ (1902) इन जुगाड़ों का खजाना है। उसमें रस्सियों से उड़ते रॉकेट, धुएं में विलीन होते सेलेनाइट्स (चंद्रमा वासी), और आईनों के जरिए बने विशालकाय दृश्य देखे जा सकते हैं। मेलिएस ने साबित किया कि ‘Behind the scene’ की तकनीक ही असली स्टार है। वह खुद अपने स्टूडियो में हर ट्रिक का आविष्कार करते, उसे बनाते और फिल्माते थे। उनके लिए सिनेमा ‘दृश्य जादू’ से कम नहीं था।

इन जुगाड़ों की विरासत और आज का सिनेमा

आज जब हम ‘अवतार’ या ‘ड्यून’ जैसी फिल्मों के दृश्य देखकर दंग रह जाते हैं, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसकी नींव यहीं, इन रस्सियों, धुएं और आईनों से पड़ी थी। आज का ‘ग्रीन स्क्रीन’ उसी शैडो प्लेट तकनीक का डिजिटल रूप है। आज का ‘सिम्युलेटेड स्मोक एंड फॉग’ उसी ड्राई आइस के धुएं की सॉफ्टवेयर वर्जन है। और आज का ‘वायर रिमूवल’ उन पतली रस्सियों को हटाने के लिए संघर्ष की ही अगली कड़ी है।

मेरे अनुभव में, इन पुराने तरीकों ने फिल्मकारों में एक तरह का ‘डिसिप्लिन’ पैदा किया। गलती की गुंजाइश नहीं थी। हर शॉट से पहले दिमागी कसरत होती थी। आज हमारे पास बहुत सारे टूल हैं, लेकिन कभी-कभी उस ‘Behind the scene’ की मेहनत और कल्पना की कमी खलती है। जब हम एक पुरानी साइलेंट फिल्म देखते हैं और उसके इफेक्ट पर हैरान होते हैं, तो हम सिर्फ एक इफेक्ट के लिए नहीं, बल्कि उस जुनून, उस इनोवेशन और उस हाथ के कौशल के लिए सम्मान व्यक्त करते हैं, जो पर्दे के पीछे छुपा रहता था।

निष्कर्ष: जुगाड़ ही तो था असली इनोवेशन

तो अगली बार जब आप कोई फिल्म देखें, और कोई दृश्य आपकी सांसें रोक दे, तो एक पल के लिए उन अनजान ‘इफेक्ट्स मैन’ को याद करें। उस रस्सीबाज को, जो छत पर चढ़कर हीरो को उड़ा रहा था। उस धुएं वाले को, जिसकी आंखें जल रही थीं पर वह परफेक्ट क्लाउड बना रहा था। और उस पेंटर को, जो शीशे पर महल बनाते-बनाते रात भर जागा था। ‘Behind the scene’ का यही सच है – सिनेमा का असली जादू पर्दे के सामने नहीं, उसके पीछे बुना जाता है। और यह जादू कभी नहीं मरता; सिर्फ रूप बदलता है। रस्सी, धुआं और आईना आज भी हमारे बीच हैं, बस उनका स्वरूप डिजिटल पिक्सल बन गया है। लेकिन उनकी आत्मा, वही पुरानी, जो कुछ भी करके दर्शक को हैरान कर देने की जिद रखती है, आज भी जिंदा है।

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