1960 का सुनहरा दौर: प्यार, कुर्बानी और इज़्ज़त की बॉलीवुड कहानियाँ

Movie Nurture:1960 का सुनहरा दौर: प्यार, कुर्बानी और इज़्ज़त की बॉलीवुड कहानियाँ

कल्पना कीजिए उस ज़माने की, जब सिनेमा हॉल में घुसते ही आपको महसूस होता था कि आप सिर्फ एक फिल्म नहीं देखने जा रहे, बल्कि एक अनकही भावनाओं के सफर पर निकल रहे हैं। वह दौर था जब परदे पर प्यार एक कोमल छूहार थी, न कि एक भौंचक्का कर देने वाला एक्शन सीक्वेंस। जब कुर्बानी का मतलब था दिल का टुकड़ा टूटना, न कि सिर्फ विलेन को मार गिराना। और जब ‘इज़्ज़त’ शब्द ही इतना भारी था कि पूरी कहानी की धुरी बन जाता था। 1960 का दशक भारतीय सिनेमा का वह स्वर्णिम काल था, जहाँ कहानियाँ रूह में उतर जाती थीं और किरदार दशकों बाद भी याद किए जाते हैं।

यह वह दशक था जब एक नए भारत का सपना देखा जा रहा था, लेकिन पुरानी रूढ़ियाँ और सामाजिक बंधन अब भी जस के तस थे। यही टकराव – नए सपने और पुराने मूल्यों का – हमारी फिल्मों की नब्ज बन गया। ये फिल्में सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज का वह आईना थीं, जिसमें हर कोई अपना चेहरा देख सकता था।

प्यार: एक गूँगी की जुबानी, एक बहरी के कानों तक

आज के ज़माने के ‘लव स्टोरीज़’ से अलग, 1960 का प्यार शब्दों से नहीं, बल्कि अनकही चाहत, लंबी-लंबी निगाहों और दर्द भरे सब्र से बुना जाता था।

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इसकी सबसे बुलंद मिसाल ‘मुग़ल-ए-आज़म’ (1960) है। यहाँ सलीम और अनारकली का प्यार सिर्फ दो जिस्मों का मिलन नहीं, बल्कि एक तख़्त, एक ताज और एक साम्राज्य को चुनौती थी। कैसे एक शहजादा अपनी मोहब्बत के आगे सारी दुनिया से बगावत कर बैठता है। “प्यार किया तो डरना क्या” का जाप आज भी होता है, क्योंकि यह सिर्फ एक गाना नहीं, बल्कि प्यार के सामने दुनिया की सारी ताकतों को ठुकराने का एक जज़्बा था।

फिर सामने आई ‘साहिब बीबी और ग़ुलाम’ (1962)। चोटी (मीना कुमारी) का अकेलापन और ग़ुलाम (गुरु दत्त) का उसके प्रति खिंचाव, प्यार का वह शुद्धतम रूप था जो हमदर्दी और साथ से जन्मा था। यह प्यार नहीं, बल्कि एक आत्मा का दूसरी आत्मा से सामना था, जो सामंती ठाठ-बाट की बलि चढ़ गया।

और फिर ‘गाइड’ (1965) ने प्यार की परिभाषा ही बदल दी। रोजी (वहीदा रहमान) का राजू (देव आनंद) से मिलना और फिर खुद को तलाशना, एक ऐसा प्रेम था जो सामाजिक बंदिशों से आगे निकलकर आत्म-साक्षात्कार का सफर बन गया। यह फिल्म सिखाती है कि सच्चा प्यार कभी बंधन नहीं बनता, बल्कि आज़ादी देता है।

कुर्बानी: वह दर्द जो गीत बनकर हमेशा के लिए अमर हो गया

उस दौर में कुर्बानी सिनेमा की सबसे मार्मिक भाषा थी। यह अक्सर प्यार, दोस्ती या परिवार के नाम पर खुद को भुला देने का नाम था।

इसकी सबसे दर्दनाक तस्वीर है ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ (1960)। मीना कुमारी का वह किरदार, जो अपने प्यार (राज कुमार) को दूसरी की खुशी के लिए छोड़ देती है और जीवन भर एक मौन पीड़ा झेलती है। उनकी आँखों में छुपा दर्द सीधा दर्शक के दिल में उतर जाता है। यह आत्म-बलिदान की वह कहानी है जो हमें रुला देती है, लेकिन साथ ही प्रेम की शुद्धता का एहसास भी कराती है।

‘संगम’ (1964) में राजेंद्र कुमार का ‘करण’ अपनी जान से प्यारी दोस्ती (राज कपूर) और उनके प्यार (वहीदा रहमान) के लिए खुद को कुर्बान कर देता है। “ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर” गाना सुनते हुए आज भी लोगों की आँखें नम हो जाती हैं। यहाँ कुर्बानी एक फैशन नहीं, बल्कि दोस्ती और इंसानियत पर कुर्बान होने का जज़्बा था।

यहाँ तक कि ‘मदर इंडिया’ (1957), जिसने 60 के दशक की नैतिक नींव रखी, में राधा (नरगिस) की कुर्बानी अपने ही बेटे के हाथों होती है। यह सिर्फ एक माँ की कहानी नहीं, बल्कि सम्मान और सिद्धांतों के लिए दी गई वह अंतिम कीमत है, जो भारतीय नारी की अमर गाथा बन गई।

इज़्ज़त: वह सूत्र जो हर रिश्ते की बुनियाद था

उस ज़माने में इज़्ज़त सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि एक जीवन-शैली थी। यह इज़्ज़त कभी परिवार की होती थी, तो कभी अपने ‘आप’ की।

‘गंगा जमुना’ (1961) में दो भाइयों (दिलीप कुमार और नासिर हुसैन) की कहानी इसी इज़्ज़त के इर्द-गिर्द घूमती है। एक भाई ज़मींदार के अत्याचार के खिलाफ डाकू बन जाता है, लेकिन उसकी लड़ाई सिर्फ बदला नहीं, बल्कि अपनी बहन और अपने सम्मान की पुनर्प्राप्ति है।

‘उपकार’ (1967) में मनोज कुमार ‘भारत’ की इज़्ज़त देश के प्रति उनके प्रेम से जुड़ी हुई है। यहाँ इज़्ज़त का मतलब है देश की मिट्टी की इज़्ज़त, किसान के पसीने की इज़्ज़त। “मेरे देश की धरती” गाना सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं, क्योंकि यह इज़्ज़त की वह परिभाषा है जो व्यक्ति से आगे बढ़कर राष्ट्र तक पहुँच जाती है।

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वह जादू कैसे बना? वो संगीत, वो शायरी, वो चेहरे

इस पूरे सुनहरे महल की नींव में थे वो महान संगीतकार – नौशाद, एस.डी. बर्मन, शंकर-जयकिशन, मदन मोहन। उन्होंने ऐसी धुनें दीं जो सीधे दिल के तार को छेड़ देती थीं। लता मंगेशकर की कोमलता, आशा भोसले का उन्माद, मोहम्मद रफी की मिठास, मुकेश की करुणा और किशोर कुमार की जीवंतता ने इन धुनों में जान फूंक दी।

और फिर वो गीतकार… शकील बदायूँनी, शैलेंद्र, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी। उनकी कलम से निकले शब्द सिर्फ गाने नहीं, बल्कि दर्द, प्यार और जुनून की कविताएँ थे। “ऐ मेरे दिल कहीं और चल”, “ऐ-दिल-ए-नादाँ”, “कभी कभी मेरे दिल में” जैसे गीत आज भी उसी ताजगी के साथ हमारे दिलों में गूंजते हैं।

और इन सबके केंद्र में थे वो अद्वितीय चेहरे। दिलीप कुमार का ‘ट्रेजडी किंग’ का दर्द, राज कपूर का ‘जान-ए-बहार’ का पन, देव आनंद का स्टाइल, राजेंद्र कुमार की ‘जुबली किंग’ वाली विश्वसनीयता। और स्त्रियों की बात करें तो मीना कुमारी का ‘दर्द का सागर’ होना, मधुबाला की अनूठी मोहकता, नरगिस का गरिमामयी अभिनय, वहीदा रहमान की ऊर्जा और साधना का अपना अलग ‘साधना कट’। ये सिर्फ कलाकार नहीं, बल्कि एक-एक भावना के प्रतीक थे।

एक विरासत जो आज भी हमसे बात करती है

आज की फिल्में तकनीकी रूप से कितनी भी समृद्ध क्यों न हों, उस दौर की भावनात्मक ईमानदारी और कहानी कहने की सादगी का जादू कहीं खो सा गया है। 1960 की फिल्में हमें याद दिलाती हैं कि इंसानी रिश्तों की जड़ें प्यार, त्याग और सम्मान में ही होती हैं।

तो अगली बार जब आप फिल्में देखने बैठें, तो एक बार इस सुनहरे दशक की किसी क्लासिक फिल्म को ज़रूर चुनें। शायद आपको वह दिल दिखाई दे जो आज की चकाचौंध में कहीं खो सा गया है। क्योंकि 1960 का दशक सचमुच बॉलीवुड का वह दिल था, जो आज भी प्यार, कुर्बानी और इज़्ज़त के लिए धड़कता है।

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