ये सवाल अक्सर दिमाग में आता है: “क्या साइलेंट फिल्मों के दौर में भी महिला अभिनेत्रियां या फिल्म निर्माता थीं?” या फिर ये मान लिया जाता है कि उस ज़माने में सिनेमा पूरी तरह से मर्दों का ही खेल था? दोस्तों, सच्चाई तो ये है कि साइलेंट फिल्मों का युग महिलाओं के बिना अधूरा था, बल्कि कहें तो उन्होंने ही इसकी नींव रखी! चलिए, एक सफ़र पर निकलते हैं और उन बहादुर, प्रतिभाशाली महिलाओं से मिलते हैं, जिन्होंने बिना आवाज़ के भी दुनिया को अपने हुनर से गूंगा कर दिया था।
पहला कैमरा रोल, पहली स्टार: औरतें ही थीं मुख्य आकर्षण!
सोचिए, जब सिनेमा बस पैदा ही हुआ था, तब भी औरतें पर्दे पर दिख रही थीं! हैरानी की बात नहीं? देखिए कैसे:
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दुनिया की पहली अभिनेत्री? (1894): हाँ, आपने सही पढ़ा! फ्रांस की लुईस फ्रेलेंटी को अक्सर पहली फिल्म अभिनेत्री माना जाता है। उन्होंने थॉमस एडिसन की कंपनी के लिए बनने वाली छोटी-छोटी फिल्मों में काम किया, जिन्हें ‘काइनेटोस्कोप’ नामक मशीन में देखा जाता था। उनकी मशहूर फिल्म थी – ‘द डांसिंग गर्ल’।
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अमेरिका की पहली फिल्म स्टार (1908-1910 के आसपास): फ्लोरेंस लॉरेंस को अमेरिकी सिनेमा की पहली जानी-मानी अभिनेत्री माना जाता है। उस ज़माने में स्टूडियो अभिनेताओं के नाम छिपाते थे, ताकि वे ज़्यादा पैसे न मांगें! लेकिन फ्लोरेंस इतनी पॉपुलर हो गईं कि स्टूडियो को उनका नाम बताना पड़ा। उन्हें “द बायोग्राफ गर्ल” कहा जाता था।
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‘पर्दे की पहली बेबी’ (1909): मेरी पिकफोर्ड! ये नाम तो शायद आपने सुना होगा। लेकिन क्या आप जानते हैं कि वो साइलेंट फिल्मों की सबसे बड़ी सुपरस्टार थीं? उन्हें “अमेरिका की प्यारी” और “पर्दे की पहली बेबी” कहा जाता था। उनकी मासूमियत भरी शक्ल, सुनहरे घुंघराले बाल और जबरदस्त एक्टिंग ने दुनिया भर के दर्शकों का दिल जीत लिया। वो सिर्फ अभिनेत्री ही नहीं, बल्कि बहुत स्मार्ट बिजनेसवुमन भी थीं। उन्होंने चार्ली चैपलिन और दूसरों के साथ मिलकर अपना खुद का स्टूडियो “यूनाइटेड आर्टिस्ट्स” बनाया, ताकि कलाकारों को क्रिएटिव कंट्रोल मिले। उनकी फिल्में जैसे ‘द लिटल प्रिंसेस’ (1917) और ‘डैडी लॉन्ग लेग्स’ (1919) बहुत मशहूर हुईं। मेरी पिकफोर्ड ने साबित किया कि एक महिला सिर्फ स्टार ही नहीं, बल्कि सिनेमा की बागडोर भी संभाल सकती है।
सिर्फ अभिनेत्रियाँ ही नहीं, बल्कि कुर्सी संभालने वाली महिलाएँ भी!
साइलेंट फिल्मों का सबसे रोमांचक पहलू ये था कि उस समय महिलाएँ सिर्फ अभिनेत्रियाँ ही नहीं, बल्कि डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, लेखक और स्टूडियो मालिक भी थीं! आज के मुकाबले ये बात और भी ज्यादा हैरान करने वाली है।
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लोइस वेबर: दुनिया की पहली महिला फिल्म निर्देशकों में से एक:
लोइस वेबर सिर्फ एक डायरेक्टर नहीं थीं, बल्कि वो अपने वक्त की सबसे ज्यादा पैसा कमाने वाली फिल्म निर्देशक थीं! उन्होंने 1910 और 1920 के दशक में सैकड़ों फिल्में बनाईं। वेबर सामाजिक मुद्दों पर बहुत बोल्ड फिल्में बनाती थीं, जो आज भी प्रासंगिक हैं:-
‘हिप्पोक्रेट्स’ (1914): गर्भपात जैसे विवादास्पद विषय पर बनी शायद पहली फिल्म।
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‘द ब्लाट’ (1916): कपड़ा मिलों में महिला मजदूरों के शोषण की कहानी।
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‘व्हेयर आर माई चिल्ड्रन?’ (1916): परिवार नियोजन और जन्म नियंत्रण पर बनी पहली फिल्मों में से एक।
लोइस वेबर ने साबित किया कि महिलाएँ न सिर्फ तकनीकी रूप से माहिर हो सकती हैं, बल्कि गंभीर और साहसिक विषयों पर भी बेहतरीन फिल्में बना सकती हैं।
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डोरोथी आर्ज़नर: हॉलीवुड की पहली बड़ी महिला निर्देशक:
आर्ज़नर ने साइलेंट युग के अंत और बोलती फिल्मों की शुरुआत में काम किया। वो हॉलीवुड की पहली महिला थीं जिन्होंने बड़े स्टूडियो (पैरामाउंट) के लिए फीचर फिल्में डायरेक्ट कीं। उन्होंने क्लारा बो (एक और मशहूर साइलेंट स्टार) और कैथरीन हेपबर्न जैसी बड़ी अभिनेत्रियों के साथ काम किया। उन्हें बूम माइक्रोफोन के आविष्कार का श्रेय भी दिया जाता है! -
फ्रांसिस मैरियन: दुनिया की सबसे ज्यादा पैसा कमाने वाली पटकथा लेखिका:
फ्रांसिस मैरियन ने मेरी पिकफोर्ड की कई मशहूर फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी। वो अपने समय की सबसे सफल और ज्यादा पैसा कमाने वाली स्क्रिप्ट राइटर थीं। उन्होंने दो ऑस्कर भी जीते! -
एलिस गाय-ब्लाचे: फ्रांस की पायनियर:
फ्रांस में एलिस गाय-ब्लाचे ने सिर्फ एक्टिंग ही नहीं की, बल्कि खुद की प्रोडक्शन कंपनी बनाई और उसके बैनर तले खुद डायरेक्ट और प्रोड्यूस भी किया! उन्हें दुनिया की पहली महिला फिल्म निर्देशक माना जाता है।
भारत में भी थीं साइलेंट स्टार्स!
हाँ, हमारे यहाँ भी साइलेंट फिल्मों के दौर में महिला अभिनेत्रियां थीं, हालाँकि उनकी संख्या कम थी और समाज में अभिनय को अच्छा नहीं माना जाता था।
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दुर्गा बाई कामत (दुर्गा): भारत की पहली महिला स्टार?
1913 में बनी भारत की पहली फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ में पुरुष ही स्त्री भूमिकाएँ निभाते थे। लेकिन जल्द ही ये बदल गया। दुर्गा बाई कामत, जिन्हें स्टेज पर ‘दुर्गा’ के नाम से जाना जाता था, और उनकी बेटी कमला ने 1913 की ही फिल्म ‘मोहिनी भस्मासुर’ में अभिनय किया। दुर्गा बाई ने मोहिनी की भूमिका निभाई और कमला ने भस्मासुर की बेटी का रोल किया। इन्हें भारत की पहली महिला अभिनेत्रियों में गिना जाता है। उन्होंने समाज की नज़रों में अभिनय को ‘अच्छा’ बनाने में अहम भूमिका निभाई। -
रुबी मयर्स (सुलोचना): हिंदुस्तान की पहली सुपरस्टार:
सुलोचना, जिनका असली नाम रुबी मयर्स था, 1920 और 1930 के दशक की सबसे बड़ी स्टार थीं। वो भारत की पहली स्टार थीं जिन्होंने एक ही फिल्म में चार अलग-अलग भूमिकाएँ निभाईं (फिल्म ‘वाइल्ड कैट ऑफ बॉम्बे’, 1927)। उनकी खूबसूरती और स्टाइल दर्शकों के दिलों पर राज करती थी। सुलोचना ने साइलेंट और बोलती दोनों तरह की फिल्मों में काम किया। -
ज़ेबुनिस्सा (फातिमा बेगम): अभिनेत्री, निर्माता और निर्देशक!
ज़ेबुनिस्सा, जिन्हें फातिमा बेगम के नाम से भी जाना जाता है, एक और अहम नाम हैं। वो न सिर्फ एक सफल अभिनेत्री थीं, बल्कि भारत की पहली महिला फिल्म निर्देशक भी मानी जाती हैं! उन्होंने 1926 में फिल्म ‘बुलबुल-ए-परिस्तान’ का निर्देशन किया और अपनी खुद की प्रोडक्शन कंपनी ‘विक्टोरिया-फातिमा फिल्म्स’ भी बनाई। उनकी तीन बेटियां – सुल्ताना, शीरीन और ज़ोहरा (जोहरा सहगल बनीं) भी फिल्मों से जुड़ीं। -
देविका रानी: साइलेंट से साउंड तक का सफर:
देविका रानी ने साइलेंट युग के अंत में अपना करियर शुरू किया। वो भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ (1931) में नज़र आने वाली थीं, हालाँकि उनकी भूमिका फाइनल कट में नहीं रही। लेकिन वो जल्द ही साउंड युग की सबसे बड़ी स्टार बनीं और बॉम्बे टॉकीज़ की सह-संस्थापक भी थीं।
साइलेंट स्टार्स की चमक क्यों फीकी पड़ गई?
फिर सवाल उठता है: अगर इतनी प्रतिभाशाली महिलाएँ थीं, तो उनके नाम इतिहास से क्यों धुंधले पड़ गए? कई वजहें हैं:
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बोलती फिल्मों का आगमन: जब साउंड आया, तो कई साइलेंट स्टार्स की आवाज़ दर्शकों को पसंद नहीं आई, या फिर उन्हें डबिंग का झंझट समझ नहीं आया। नई आवाज़ों (जो अक्सर गायिका भी होती थीं) को तरजीह दी जाने लगी।
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हॉलीवुड स्टूडियो सिस्टम का कड़ा नियंत्रण: 1920 के अंत तक बड़े स्टूडियो सत्ता में आ गए। उन्होंने कलाकारों (खासकर महिलाओं) पर पूरा कंट्रोल कर लिया। अब क्रिएटिव कंट्रोल स्टूडियो बॉसों के हाथ में था, ज्यादातर पुरुष ही। महिला डायरेक्टर और प्रोड्यूसर के लिए जगह सिकुड़ने लगी।
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सामाजिक बदलाव: 1920 का दशक कुछ हद तक आज़ाद ख्याल था। लेकिन 1930 के दशक में महामंदी और फिर विश्व युद्ध के दौरान समाज में रूढ़िवादी नज़रिया फिर से मजबूत हुआ। महिलाओं से फिर से ‘घरेलू’ भूमिकाओं की उम्मीद की जाने लगी।
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इतिहास लिखने वाले: ज्यादातर फिल्म इतिहासकार पुरुष रहे हैं। उन्होंने अक्सर पुरुष निर्देशकों और स्टार्स (चैपलिन, कीटन, लॉयड) को ही जगह दी, महिला पायनियर्स की उपलब्धियों को नज़रअंदाज़ कर दिया या कम करके आंका।
क्यों ये कहानी आज भी मायने रखती है?
इन महिलाओं की कहानी सुनना सिर्फ इतिहास जानना नहीं है, बल्कि ये समझना है कि:
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महिलाओं ने सिनेमा बनाया है: सिनेमा की नींव में महिलाओं का योगदान किसी से कम नहीं था। वे सिर्फ चेहरे नहीं थीं, बल्कि कहानीकार, निर्देशक और उद्यमी भी थीं।
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बाधाएँ हमेशा रही हैं, लेकिन प्रतिभा रास्ता ढूंढ लेती है: उन्होंने उस ज़माने में भी काम किया जब समाज में औरतों के लिए बहुत सीमाएं थीं। उनकी हिम्मत प्रेरणादायक है।
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क्रिएटिव कंट्रोल ज़रूरी है: मेरी पिकफोर्ड और लोइस वेबर जैसी महिलाओं ने दिखाया कि कलाकारों को अपनी कला पर नियंत्रण रखने का हक होना चाहिए। ये सबक आज भी बहुत ज़रूरी है।
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इतिहास को दोबारा लिखने की ज़रूरत है: इन भूली हुई नायिकाओं को फिर से याद करना और उन्हें उनका हक दिलाना ज़रूरी है।
निष्कर्ष: साइलेंट युग था ‘हीरोइन्स का स्वर्ण युग’
तो अगली बार जब कोई ये कहे कि “पुराने ज़माने की फिल्मों में औरतों का क्या रोल था?”, तो आप जानते हैं कि जवाब क्या देना है! साइलेंट फिल्मों का दौर महिलाओं के लिए सिर्फ शुरुआत ही नहीं, बल्कि एक ऐसा समय था जब उन्होंने सिनेमा की दुनिया पर राज किया – पर्दे के सामने और पीछे दोनों जगह। वे अभिनेत्रियाँ, निर्देशिकाएँ, लेखिकाएँ और निर्माता थीं जिन्होंने बिना एक शब्द बोले, अपनी कला से दुनिया को संदेश दिया। उनकी विरासत आज की फिल्म निर्मात्रियों और अभिनेत्रियों के लिए एक मजबूत आधार है। उन्हें भुला देना सिनेमा के इतिहास का सबसे बड़ा अन्याय होगा। याद रखिए, सिनेमा की ये ‘फर्स्ट लेडीज़’ सच्ची सुपरहीरोइन थीं!
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