क्या आपको लगता है कि बॉलीवुड की ‘फर्स्ट फीमेल सुपरस्टार’ का ताज मधुबाला या नरगिस के सिर जाता है? एक मिनट रुकिए! असली कहानी तो उससे भी पुरानी है, जब सिनेमा बोलता नहीं था, बस चलचित्रों के जरिए दिल जीतता था। साइलेंट फिल्मों के दौर (1913 से लगभग 1934 तक) में भारत की स्क्रीन्स पर कई ऐसी धूमकेतु महिला कलाकारों ने छाप छोड़ी जिनका नाम आज शायद ही कोई जानता है।
ये वो पायनियर थीं जिन्होंने पर्दे पर आने का साहस किया, जब समाज में ये आसान नहीं था। इन्होंने बिना आवाज़ के, सिर्फ अपने अभिनय, चेहरे के हाव-भाव और शारीरिक अभिव्यक्ति से लाखों दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। आज, हम चलते हैं उस खोई हुई दुनिया में और याद करते हैं उन पांच भूली-बिसरी महिला सुपरस्टार्स को, जिन्होंने हिंदी सिनेमा की नींव में अपना अमूल्य योगदान दिया:
1. देविका रानी: साइलेंट एरा की चमक, जो टॉकीज़ की रानी बनीं (सिर्फ एक साइलेंट फिल्म, पर प्रभाव अमिट!)
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क्यों याद की जाती हैं? देविका रानी का नाम आमतौर पर भारत की पहली ‘महानायिका’ और बॉम्बे टॉकीज़ की सह-संस्थापक के तौर पर जाना जाता है। लेकिन उनकी शुरुआत भी साइलेंट फिल्मों से हुई थी!
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साइलेंट जर्नी: उनकी एकमात्र साइलेंट फिल्म थी ‘कर्मा’ (1933), जो भारत और ब्रिटेन दोनों जगह बनी। यह फिल्म अपने समय में काफी बोल्ड मानी गई, खासकर एक लंबा किस सीन होने के कारण। देविका रानी की खूबसूरती और स्क्रीन प्रेजेंस ने सबका ध्यान खींचा।
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वाइब्रेंट पर्सनालिटी: हालाँकि उनका साइलेंट करियर बहुत छोटा था (टॉकीज़ आ गए!), लेकिन ‘कर्मा’ ने उन्हें एक स्टार के रूप में स्थापित कर दिया। उनकी शिक्षा (लंदन में आर्ट एंड आर्किटेक्चर), उनका आत्मविश्वास और उनकी स्टाइलिशनेस उस जमाने में भी उन्हें अलग बनाती थी।
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लेगसी: देविका रानी साइलेंट से टॉकीज़ के बीच की कड़ी हैं। उन्होंने साबित किया कि एक भारतीय अभिनेत्री अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी धमाल मचा सकती है। बॉम्बे टॉकीज़ के जरिए उन्होंने भारतीय सिनेमा को नई दिशा दी।
2. सुलोचना (रूबी मायर्स): भारत की पहली सुपरस्टार, जिनके फैन उनके घर तक आ जाते थे!
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क्यों याद की जाती हैं? सुलोचना को भारत की पहली बड़ी महिला सुपरस्टार माना जाता है। वे सिर्फ अभिनेत्री ही नहीं, बल्कि एक सनसनी थीं! उनकी फिल्मों की लाइनें लगती थीं और फैंस उनके घर के बाहर भीड़ लगाकर उन्हें देखने के लिए इंतज़ार करते थे।
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स्टारडम का जलवा: उनकी स्टाइल, फैशन और बोल्ड इमेज उस दौर में क्रांतिकारी थी। वे कई तरह के रोल करती थीं – ड्रामा, कॉमेडी, एक्शन। उन्होंने ‘सिंड्रेला’ (1924) जैसी फिल्मों में एक ही फिल्म में कई रोल करके लोगों को चौंका दिया। ‘वाइल्ड कैट ऑफ बॉम्बे’ (1927) और ‘टाइपिस्ट गर्ल’ (1926) उनकी बेहद मशहूर फिल्में थीं।
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बोल्ड चॉइसेज: सुलोचना ने बिकिनी जैसे कॉस्ट्यूम पहनकर और पुरुषों जैसे किरदार (जैसे ‘टाइपिस्ट गर्ल’ में) निभाकर तब के रूढ़िवादी समाज में हलचल मचा दी थी। वे अपने समय से काफी आगे थीं।
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महारत: उनके चेहरे के भाव और आँखों के अभिनय के लिए उनकी खूब तारीफ होती थी। बिना बोले भी वे पूरी कहानी कह देती थीं।
3. जुबैदा: भारत की पहली ‘म्यूजिकल सेंसेशन’ और स्टारडम की राह बनाने वाली
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क्यों याद की जाती हैं? जुबैदा सिर्फ एक अभिनेत्री ही नहीं थीं, बल्कि एक मशहूर गायिका और डांसर भी थीं। वे भारतीय सिनेमा की पहली बड़ी ‘म्यूजिकल स्टार’ कही जा सकती हैं।
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पारिवारिक विरासत: वे कोहिनूर स्टूडियो के मालिक नानाभाई देसाई की बेटी थीं, जिसने उन्हें फिल्मों में आने का मौका दिया। लेकिन उनका टैलेंट ही था जिसने उन्हें सितारा बनाया।
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यादगार फिल्में: उनकी सबसे प्रसिद्ध साइलेंट फिल्मों में शामिल हैं ‘काला नाग’ (1924), ‘सिनेमा की रानी’ (1925) और ‘बुलबुल-ए-परिस्तान’ (1926)। ‘सिनेमा की रानी’ तो उनकी स्टारडम का प्रतीक बन गई।
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आकर्षण का केंद्र: जुबैदा की खूबसूरती और स्क्रीन पर उनकी गतिविधियाँ (डांस, एक्सप्रेशन) दर्शकों को बेहद पसंद आती थीं। वे अपने समय की सबसे ज्यादा पारिश्रमिक पाने वाली अभिनेत्रियों में से एक थीं। बाद में उन्होंने टॉकीज़ (जैसे ‘आलम आरा’, भारत की पहली बोलती फिल्म) में भी काम किया।
4. सीता देवी (रेनूका देवी): बंगाल की गौरव, जिन्होंने साइलेंट स्क्रीन पर छाईं
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क्यों याद की जाती हैं? साइलेंट युग में बंगाली सिनेमा बहुत समृद्ध था, और सीता देवी उसकी सबसे चमकदार सितारों में से एक थीं। उन्हें अपने जमाने की सबसे सुंदर अभिनेत्रियों में गिना जाता था और उनकी लोकप्रियता देशव्यापी थी।
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शानदार करियर: उन्होंने कई बेहद सफल साइलेंट फिल्मों में अभिनय किया, जिनमें ‘जयदेव’ (1926), ‘राधा कृष्ण’ (1926), ‘पूर्णिमा’ (1926), और ‘शिरी फरहाद’ (1926) शामिल हैं। उनकी फिल्में अक्सर पौराणिक या ऐतिहासिक विषयों पर होती थीं।
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स्क्रीन प्रेजेंस: सीता देवी अपनी गरिमामयी उपस्थिति और अभिव्यक्तिपूर्ण अभिनय के लिए जानी जाती थीं। उनके किरदार अक्सर शक्तिशाली और दृढ़ निश्चय वाली महिलाओं के होते थे।
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ट्रांजिशन: साइलेंट एरा के बाद उन्होंने टॉकीज़ में भी सफलतापूर्वक काम किया, जो उनके बहुमुखी टैलेंट का प्रमाण है।
5. प्रभा (फातिमा बेगम की बेटी): फर्स्ट फैमिली ऑफ इंडियन सिनेमा की चमकती सितारा
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क्यों याद की जाती हैं? प्रभा का नाम भारत की पहली महिला निर्देशक, पटकथा लेखिका और प्रोड्यूसर फातिमा बेगम की बेटी के रूप में अक्सर आता है। लेकिन खुद प्रभा भी साइलेंट युग की एक सफल और लोकप्रिय अभिनेत्री थीं।
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विजन फिल्म्स: उनकी माँ फातिमा बेगम ने ‘विजन फिल्म्स’ नामक अपना प्रोडक्शन हाउस शुरू किया था। इसी बैनर तले प्रभा ने कई फिल्मों में अभिनय किया, जिन्हें उनकी माँ अक्सर निर्देशित या प्रोड्यूस करती थीं।
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मुख्य भूमिकाएँ: प्रभा ने ‘बुलबुल-ए-परिस्तान’ (1926) (जुबैदा के साथ), ‘गोडेस ऑफ लक’ (1929), और ‘हेर फेर’ (1929) जैसी फिल्मों में मुख्य भूमिकाएँ निभाईं। उनका अभिनय सहज और प्रभावी था।
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फैमिली लेगसी: प्रभा, उनकी माँ फातिमा बेगम, और उनकी बहनें ज़ुबैदा और शहजादी (बाद में सुलोचना) – यह पूरा परिवार ही भारतीय साइलेंट सिनेमा की नींव रखने में अहम था। प्रभा इस प्रतिभाशाली परिवार का एक अभिन्न अंग थीं।
क्यों इन्हें ‘सुपरस्टार’ कहा जाता था?
सोचिए उस जमाने में! कोई सोशल मीडिया नहीं, कोई गॉसिप कॉलम नहीं। फिर भी ये महिलाएँ सुपरस्टार क्यों थीं?
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भीड़ इकट्ठी करती थीं: इनकी फिल्में रिलीज होने पर सिनेमाघरों के बाहर लंबी कतारें लगती थीं।
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फैशन आइकन थीं: इनके कपड़े, हेयरस्टाइल और ज्वैलरी लोगों के लिए ट्रेंडसेटर होते थे। लोग इनकी नकल करते थे।
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फोटोज की धूम: इनकी तस्वीरें पोस्टकार्ड, कैलेंडर और पत्रिकाओं में छपती थीं और बेहद लोकप्रिय होती थीं। फैंस इन्हें कलेक्ट करते थे।
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ऊंची फीस: ये अपने समय की सबसे ज्यादा पैसा कमाने वाली अभिनेत्रियों में से थीं, जो उनकी स्टार पावर का सबूत था।
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नाम की ताकत: सिर्फ ‘सुलोचना’ या ‘जुबैदा’ का नाम ही फिल्म के प्रचार के लिए काफी होता था। लोग उन्हें देखने सिनेमा हॉल जाते थे।
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कहाँ गुम हो गईं ये यादें?
यह एक दुखद सच्चाई है कि साइलेंट युग की अधिकांश फिल्में हमेशा के लिए खो चुकी हैं। आग, नमी, लापरवाही और फिल्म स्टॉक के नष्ट होने की प्रकृति ने इस विरासत का बड़ा हिस्सा निगल लिया। जो कुछ बचा है, वह भी बहुत कम और खंडित है। नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया (NFAI), पुणे जैसी संस्थाएँ इन बची हुई नायाब फिल्मों को बचाने और संरक्षित करने की लगातार कोशिश कर रही हैं। कभी-कभार फिल्म फेस्टिवल्स में इन्हें दिखाया भी जाता है।
निष्कर्ष: इतिहास के पन्नों से एक सलाम
सुलोचना, जुबैदा, देविका रानी, सीता देवी, प्रभा और उन जैसी कई अन्य महिलाएँ सिर्फ अभिनेत्रियाँ नहीं थीं। वे पायनियर थीं। उन्होंने एक नए और अजनबी माध्यम में काम करने का साहस दिखाया। उन्होंने समाज की पाबंदियों को चुनौती दी और अपनी प्रतिभा के दम पर सुपरस्टारडम हासिल किया। उन्होंने ये साबित किया कि सिनेमा पर सिर्फ पुरुषों का हक नहीं, महिलाएँ भी सफलता की नई इबारत लिख सकती हैं।
इन भूली-बिसरी सितारों को याद करना सिर्फ इतिहास की बात नहीं है। यह उन सभी महिलाओं को सलाम करना है जिन्होंने अपने हुनर, साहस और जुनून से भारतीय सिनेमा के शुरुआती दौर को रोशन किया। अगली बार जब आप किसी आज की सुपरस्टार अभिनेत्री को देखें, तो याद कीजिएगा उन पहली महिलाओं को, जिन्होंने बिना आवाज़ के भी, अपने अभिनय की आग से पूरे देश को गर्म कर दिया था। उनकी चुप्पी में ही भारतीय सिनेमा की पहली, ज़ोरदार आवाज़ छिपी थी।
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