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इकीरू (1952): कागजों के पहाड़ में दफन एक आदमी, और जीने की वजह ढूंढने की कोशिश

जब ज़िंदगी फाइलों के नीचे दम तोड़ने लगे, तब एक शांत अफसर ने पूछ लिया — क्या मैं वाकई कभी जिया हूँ?

Sonaley Jain by Sonaley Jain
July 25, 2025
in 1950, Inspirational, International Films, Movie Review, old Films, Top Stories
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Movie Nurture: इकीरू (1952)
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सोचिए, एक दिन डॉक्टर आपको बता दे कि आपको गैस्ट्रिक कैंसर है, और बस कुछ ही महीने बाकी हैं। अब सवाल ये: अगले छह महीने कैसे जियेंगे? शहर की नगरपालिका में तीस साल से फाइलें खिसकाने वाले कांजी वतनबे के सामने यही सवाल खड़ा होता है अकीरा कुरोसावा की इस अमर फिल्म में। और यहीं से शुरू होती है सिनेमा की शायद सबसे गहरी, सबसे मार्मिक, और सबसे ज़रूरी यात्राओं में से एक – न सिर्फ मौत की ओर, बल्कि असली ज़िंदगी की तरफ।

कागजों का पहाड़ और एक “ज़ोंबी” की ज़िंदगी: फिल्म की शुरुआत ही दिल दहला देने वाली है। कांजी वतनबे (ताकाशी शिमुरा का वो भूमिका जिसे भुलाया नहीं जा सकता) एक ऐसे आदमी हैं जो जीते जी मर चुका है। दफ्तर में उनकी मेज पर फाइलों का ढेर लगा है, जिन्हें वो बिना पढ़े, बिना सोचे, सिर्फ एक विभाग से दूसरे विभाग में धकेलते रहते हैं। “ये हमारे विभाग का काम नहीं,” ये उनका मंत्र है। घर में बेटा और बहू सिर्फ उनकी पेंशन और बचत के लालची हैं। कांजी चलता है, सांस लेता है, काम पर जाता है, लेकिन जीवित? नहीं। वो एक खोखला खोल है, एक “मम्मी,” जैसा कि उनके ही बेटे का दोस्त कहता है। ये सब कुरोसावा बिना ज्यादा ड्रामा किए, बस ठंडे, साधारण शॉट्स में दिखा देते हैं – और यही इसकी ताकत है। ये हम सब में से कई की ज़िंदगी का डरावना सच लगता है।

Movie Nurture: इकीरू (1952)

वो धक्का: “मैं तो मर चुका हूँ।” कैंसर का पता चलना कोई सस्पेंस नहीं, बल्कि एक विस्मय है। पहले तो कांजी  स्तब्ध रह जाते हैं। फिर एक रात, अकेले अपने कमरे में, वो रोते हैं – गहरे, दर्द भरे, बिलखते हुए। ये कोई मौत का डर नहीं, बल्कि इस बात का एहसास है कि उन्होंने कभी जिया ही नहीं। “मैं तो मर चुका हूँ,” वो खुद से कहते हैं। ये वो पल है जहां से असली फिल्म शुरू होती है। ये हॉलीवुड वाला “बकेट लिस्ट” ड्रामा नहीं है, जहां हीरो दुनिया घूमने निकल पड़ता है। कांजी  बेहद खोया हुआ है। वो पहले युवा उपन्यासकार से मिलता है, जो उसे “जियो और खाओ पियो!” के मंत्र देता है। वो शहर के नाइटलाइफ़ में डूबता है, पैसा उड़ाता है, महिलाओं के साथ रातें गुजारता है। लेकिन ये सब खालीपन को नहीं भर पाता। शिमुरा का अभिनय यहाँ अद्भुत है – उनकी आँखों में एक खोज है, एक बेचैनी, जो दिखाती है कि मौज-मस्ती भी जवाब नहीं है।

एक युवती और एक पार्क की खोज: तभी उनकी मुलाकात होती है तोयो (किमिको यामागुची) से, उनके ही विभाग की युवा, जीवंत, जोशीली कर्मचारी। उसकी ज़िंदगी में उत्साह देखकर कांजी हैरान रह जाते हैं। वो उसके साथ वक़्त बिताना चाहता है, उसकी जीवन शक्ति को महसूस करना चाहता है। तोयो शुरू में घबराती है, लेकिन फिर उसे कांजी की टूटन दिखती है। एक मार्मिक दृश्य में, कांजी  उससे पूछता है कि वो इतनी जीवंत कैसे है? तोयो का सरल जवाब: वो गुड़िया बनाती है, उसे देखकर बच्चों की खुशी ही उसके जीने का सबब है। यहीं कांजी को किरण दिखती है। उसे याद आता है एक स्थानीय महिला समूह की शिकायत – एक गंदे नाले के पास बच्चों के खेलने की जगह बनाने की। उस फाइल को भी उसने खुद ही “ये हमारे विभाग का काम नहीं” कहकर ठुकरा दिया था। अचानक उसे अपना मकसद मिल जाता है: उस पार्क को बनवाना।

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दफ्तर के भूतों से जंग: ये वो हिस्सा है जहां फिल्म एक शानदार व्यंग्य बन जाती है। कांजी , जो खुद सिस्टम का हिस्सा था, अब उसी सिस्टम से लड़ रहा है। वो हर विभाग के दरवाज़े खटखटाता है, अधिकारियों को ढूंढता है, उनकी चापलूसी करता है, उन्हें शर्मिंदा करता है, और आखिरकार उन्हें हिला देता है। वो बदल गया है – उसकी आँखों में एक जुनून है, एक दृढ़ता। वो अब एक “ज़ोंबी” नहीं, बल्कि एक जीवित इंसान है, जो कुछ अच्छा करने के लिए जूझ रहा है। दफ्तर के लोग उसे “अजीब” समझते हैं, शायद पागल। लेकिन कांजी  को अब इसकी परवाह नहीं। उसका एक ही लक्ष्य है: बर्फीली सर्दी में भी, बीमारी से कमजोर होते हुए भी, वो पार्क बनवाकर रहेगा।

अंतिम संस्कार: एक जीवन का मूल्यांकन: फिल्म का जादू यहाँ एक बेहद समझदार मोड़ लेता है। कांजी की मृत्यु हो जाती है। फिल्म अंत तक नहीं पहुँचती। बल्कि, ये हमें उसके अंतिम संस्कार में ले जाती है, जहां उसके सहयोगी और परिवार इकट्ठा हैं। उन्हें पता चलता है कि उनका ये “बूढ़ा, बेकार” सहकर्मी आखिरी दिनों में किस जुनून से जिया और एक पार्क बनवा दिया। रात भर चलने वाली ये श्रद्धांजलि सभा फिल्म का दिल है। लोग शुरू में हैरान हैं, फिर संदेह करते हैं कि शायद कांजी  को कुछ फायदा होगा इस पार्क से। धीरे-धीरे, शराब के नशे और यादों के सहारे, उन्हें एहसास होने लगता है कि कांजी ने कुछ असाधारण कर दिखाया – उसने अपनी बाकी बची ज़िंदगी को मायने दे दिए। वो एक छोटा सा पार्क बनवा सका, जहां बच्चे खेल सकेंगे। ये उसकी जीत थी।

Movie Nurture: इकीरू (1952)

वो स्विंग पर गाता हुआ आदमी: फिल्म का अंतिम दृश्य सिनेमा के इतिहास में सबसे ज्यादा भावुक और अर्थपूर्ण दृश्यों में गिना जाता है। कांजी बर्फीली रात में नए बने पार्क के स्विंग पर बैठा है। वो धीरे से स्विंग कर रहा है और गा रहा है: “जिंदगी इतनी छोटी है… प्यार करो जवानी में…” (“गोंडोला नो उता” गीत)। उसके चेहरे पर एक गहरी शांति और संतुष्टि है। वो जानता है कि उसने अपने बचे हुए वक़्त को सार्थक बना दिया। वो अकेला है, लेकिन उसने अपनी मानवता, अपनी करुणा को वापस पा लिया है। वो इकीरू – जी रहा है, उस पल में, उस उपलब्धि में।

क्यों इकीरू आज भी मायने रखती है?

  1. रोबोट बनाम इंसान: आज के इस कॉर्पोरेट, भागते-दौड़ते, डिजिटल युग में जहां हम सब किसी न किसी “दफ्तर” में फंसे हैं, कांजी  की कहानी और भी ज्यादा मार्मिक लगती है। क्या हम भी सिर्फ कागज खिसका रहे हैं? क्या हम जी रहे हैं या सिर्फ मौजूद हैं?

  2. मौत जीवन का शिक्षक: मौत कोई विलेन नहीं है। इकीरू हमें याद दिलाती है कि मौत का एहसास ही हमें असली ज़िंदगी जीने के लिए जगा सकता है। ये डराने के लिए नहीं, बल्कि प्रेरित करने के लिए है।

  3. छोटी चीजों की बड़ी ताकत: कांजी ने कोई महान युद्ध नहीं जीता, कोई बड़ा आविष्कार नहीं किया। उसने एक छोटा सा पार्क बनवाया। लेकिन उस पार्क ने कितने बच्चों को खुशी दी? उस छोटे से काम ने उसकी पूरी ज़िंदगी को सार्थक बना दिया। जीवन बदलने के लिए बड़े-बड़े कामों की जरूरत नहीं होती।

  4. जुनून का जादू: कांजी  का पार्क के लिए जुनून उसे बदल देता है। उसकी आँखों में फिर से चमक आ जाती है। उसे जीने का एक कारण मिल जाता है। ये फिल्म हमें अपना “पार्क” ढूंढने को कहती है – वो चीज जो हमें सुबह बिस्तर से उठने के लिए प्रेरित करे।

  5. कुरोसावा का कमाल: कुरोसावा सिर्फ कहानी नहीं सुनाते, वो एक माहौल बनाते हैं। दफ्तर की निराशाजनक नीरसता, टोक्यो की रातों की चकाचौंध, बर्फ से ढके पार्क की शांत सुंदरता – सब कुछ कांजी  की भावनात्मक यात्रा को दर्शाता है। ताकाशी शिमुरा का अभिनय तो किसी चमत्कार से कम नहीं। बिना एक शब्द बोले भी वो सब कुछ कह देते हैं।

Movie Nurture: इकीरू (1952)

निष्कर्ष: एक गीत, एक स्विंग, और एक सवाल

इकीरू कोई सस्ती भावुकता वाली फिल्म नहीं है। ये कठोर है, ईमानदार है, और कभी-कभी असहनीय रूप से दुखद भी। लेकिन ये अंत में एक अद्भुत आशा और सुकून भी देती है। कांजी वतनबे की तरह हम सबके पास समय सीमित है। सवाल ये नहीं कि हम कब तक जिएंगे, सवाल ये है कि हम कैसे जिएंगे? क्या हम कागजों के पहाड़ में दफ़न हो जाएंगे? या फिर अपने छोटे-से “पार्क” को बनाने की हिम्मत करेंगे – वो काम, वो प्यार, वो रचना जो हमारे होने को सार्थक बनाती है?

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वो बर्फीली रात में स्विंग पर गाता हुआ बूढ़ा आदमी एक सवाल पूछता है: “तुम कैसे जी रहे हो?” ये फिल्म देखने के बाद, ये सवाल आपके मन में गूंजता रहेगा। और शायद, बस शायद, ये आपको अपने दफ्तर की कुर्सी से उठाकर, कुछ सार्थक करने के लिए प्रेरित कर दे। क्योंकि जीना, सच्चे अर्थों में जीना, ही सबसे बड़ा विद्रोह है – उस व्यवस्था के खिलाफ जो हमें सिर्फ मौजूद रहने को मजबूर करती है। इकीरू सिर्फ एक फिल्म नहीं, एक जीवन पाठ है। इसे देखिए। इसे महसूस कीजिए। और फिर, जिएं। सचमुच जिएं।

Tags: Cinema that Makes You Thinkअकीरा कुरोसोवा फिल्मअकेलापन और आत्मचिंतनइकीरू 1952जापानी क्लासिक सिनेमाभावनात्मक सिनेमा दर्शकलाइफ चेंजिंग मूवीज
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