जापानी सिनेमा के इस दौर में, जहाँ एनीमे की चटकीली दुनिया और जीवंत पात्रों का बोलबाला है, वहीं एक वक्त वह भी था जब पर्दे पर इंसान की आत्मा के अंधेरे और उजाले को बिना किसी लाग-लपेट के दिखाया जाता था। और इस दौर के सबसे बड़े शिल्पकारों में से एक नाम है आकीरा कुरोसावा का। कुरोसावा को अक्सर उनकी ऐतिहासिक महाकाव्य फिल्मों जैसे ‘सेवेन समुराई’ या ‘रशोमोन’ के लिए याद किया जाता है। लेकिन उनकी एक और फिल्म है, जो शायद उनकी सबसे अधिक मानवीय और करुणामयी फिल्म है – ‘स्ट्रे डॉग’ (1949)।
‘स्ट्रे डॉग’ सिर्फ एक अपराध थ्रिलर नहीं है; यह एक ऐसा दर्पण है जो युद्धोत्तर जापान की टूटी हुई आत्मा को दिखाता है। यह एक ऐसी करुण पुकार है, जो कुरोसावा के कैमरे से निकलकर दर्शक के दिल में उतर जाती है। यह कहानी है एक पुलिस ऑफिसर और एक चोर की, जो दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह एक ऐसी सामाजिक यथार्थवादी तस्वीर है, जो आज के दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी 1949 में थी।
वह पृष्ठभूमि: जहाँ से उपजी ‘आवारा कुत्ते’ की जरूरत
‘स्ट्रे डॉग’ को समझने के लिए हमें उस माहौल को समझना होगा, जिसमें यह फिल्म बनी थी। द्वितीय विश्व युद्ध ने जापान को तबाह कर दिया था। हिरोशिमा-नागासाकी की त्रासदी, देश की हार, और अमेरिकी कब्जे ने जापानी समाज की रीढ़ तोड़ कर रख दी थी। यह एक युद्धोत्तर जापानी सामाजिक अराजकता का दौर था। शहर खंडहर हो चुके थे, लोग बेघर और बेरोजगार थे, और नैतिकता नाम की चीज लगभग गायब हो गई थी। ब्लैक मार्केट फल-फूल रहा था, और अपराध बढ़ रहे थे।
इसी माहौल में कुरोसावा ने ‘स्ट्रे डॉग’ की कल्पना की। फिल्म की शुरुआत ही एक ऐसे ही विस्फोटक माहौल से होती है। यह कोई रूमानी या महाकाव्य शुरुआत नहीं, बल्कि एक कुरोसावा की शहरी नाइटमेयर दृष्टि की शुरुआत है। फिल्म का नायक, डिटेक्टिव मुराकामी (मित्सुको मिफ्यून), एक भीड़-भाड़ वाली बस में सवार है। पसीने से लतपथ, वह बेहद थका हुआ है। और तभी, एक छोटी सी झड़प में, एक चोर उसकी पिस्तौल चुरा लेता है। यहीं से शुरू होती है मुराकामी की वह यात्रा, जो सिर्फ एक पिस्तौल को ढूंढने की यात्रा नहीं, बल्कि अपने ही अंदर के अंधेरे को समझने की यात्रा है।
मुराकामी बनाम यासु: एक ही सिक्के के दो पहलू
‘स्ट्रे डॉग’ की खूबसूरती इसके किरदारों की गहराई में छिपी है। यह फिल्म सिर्फ अच्छे और बुरे की साधारण द्वंद्व नहीं दिखाती। बल्कि, यह दिखाती है कि कैसे परिस्थितियाँ एक इंसान को अच्छा या बुरा बना देती हैं।
डिटेक्टिव मुराकामी (द यंग आइडियलिस्ट): मुराकामी एक भोला-भाला, ईमानदार और अपने काम में जुनूनी नौजवान पुलिस ऑफिसर है। उसकी पिस्तौल के चोरी होने को वह सिर्फ एक चोरी नहीं, बल्कि अपनी नैतिक जिम्मेदारी का व्यक्तिगत संकट मानता है। वह जानता है कि उसकी पिस्तौल अब गलत हाथों में है और उससे होने वाले अपराधों की जिम्मेदारी उसी पर है। मुराकामी का चरित्र युवा पुलिस अधिकारी का आंतरिक संघर्ष को बखूबी दर्शाता है। वह पूरी फिल्म में अपराध और सजा के बीच झूलता रहता है।
यासु (द लॉस्ट सोल): दूसरी तरफ है यासु, वह चोर जिसने मुराकामी की पिस्तौल चुराई है। यासु कोई साधारण विलेन नहीं है। वह युद्ध से लौटा एक वयोवृद्ध सैनिक है, जिसने अपना सब कुछ खो दिया है। उसकी वर्दी चोरी हो गई, उसका घर नष्ट हो गया, और उसकी बहन गुम हो गई। यासु उस युद्ध विश्राम की मानसिक विकृति का शिकार है, जिसने उसे अपराध की दुनिया में धकेल दिया। वह मुराकामी का ही ‘आवारा कुत्ता’ संस्करण है। अगर मुराकामी के पास नौकरी और सहारा नहीं होता, तो शायद वह भी यासु जैसा ही होता।
कुरोसावा यहाँ एक गहरा अस्तित्ववादी द्वंद्व फिल्म निर्माण का प्रयोग करते हैं। मुराकामी और यासु दोनों ही युद्ध की विभीषिका से गुजरे हैं। दोनों ने ही तबाही देखी है। लेकिन एक ने कानून का रास्ता चुना, तो दूसरे ने अपराध का। यह द्वंद्व फिल्म के हर फ्रेम में दिखाई देता है।
गर्मी की तपिश: एक मूक पात्र के रूप में मौसम
‘स्ट्रे डॉग’ को अगर आप काले-सफेद में देखेंगे, तो भी आपको गर्मी की तपिश महसूस होगी। कुरोसावा ने टोक्यो की भीषण गर्मी और उमस को फिल्म का एक मूक पात्र बना दिया है। यह शहरी गर्मी की प्रतीकात्मक सिनेमैटोग्राफी फिल्म के मिजाज को और भी विस्फोटक बना देती है।
पसीना, चिपचिपाहट, लोगों का चिड़चिड़ापन – यह सब मिलकर एक ऐसा माहौल बनाते हैं, जहाँ हिंसा का फूट पड़ना स्वाभाविक लगता है। मुराकामी जैसे-जैसे अपराध की दुनिया में गहरे उतरता है, वैसे-वैसे गर्मी और बढ़ती जाती है। यह गर्मी सिर्फ मौसम की नहीं, बल्कि समाज के ताप और मन की व्यग्रता का प्रतीक है। यह एक क्लासिक फिल्म नोआर में पर्यावरणीय तनाव का बेहतरीन उदाहरण है।
यथार्थवाद का जादू: जब कैमरा सच्चाई बोलता है
कुरोसावा ने ‘स्ट्रे डॉग’ को एक डॉक्यूमेंट्री जैसा रियलिस्टिक लुक दिया है। उन्होंने शहर के असली खंडहर, असली ब्लैक मार्केट, और असली लोगों का इस्तेमाल किया। यह जापानी नव-यथार्थवाद का प्रभाव साफ झलकता है।
फिल्म का सबा यादगार दृश्य है, जब मुराकामी चोरों की दुनिया में घुसपैठ करने के लिए एक आम आदमी का भेष बदलता है। वह टूटे-फूटे इलाकों, अंधेरी गलियों और शरणार्थी शिविरों में भटकता है। यह दृश्य लगभग 20 मिनट लंबा है, और इसमें कोई डायलॉग नहीं है। सिर्फ मिफ्यून का चेहरा और कुरोसावा का कैमरा है, जो युद्धोत्तर जापान की बदहाली को बयान कर रहा है। यह मिफ्यून की शारीरिक अभिनय कला का एक उत्कृष्ट नमूना है, जहाँ बिना एक शब्द बोले वह निराशा, हताशा और जुनून को अपने चेहरे के भावों से व्यक्त कर देता है।
यह यथार्थवाद सिर्फ लोकेशन तक सीमित नहीं है। किरदारों के डायलॉग, उनके कपड़े, उनके रहन-सहन – सब कुछ बिल्कुल असली लगता है। कुरोसावा ने जानबूझकर फिल्म को एक आपराधिक दुनिया का नृवंशविज्ञान अध्ययन बना दिया है।
वह चोरी हुई पिस्तौल: एक मैकगफिन से कहीं बढ़कर
अगर आप सोचते हैं कि फिल्म की पूरी कहानी सिर्फ एक पिस्तौल को ढूंढने के इर्द-गिर्द घूमती है, तो आप गलत हैं। हां, तकनीकी तौर पर पिस्तौल एक ‘मैकगफिन’ है – वह वस्तु जिसके इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। लेकिन ‘स्ट्रे डॉग’ में यह पिस्तौल सिर्फ एक वस्तु नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली प्रतीक है।
यह पिस्तौल हथियार के प्रतीकात्मक वजन का प्रतिनिधित्व करती है। यह हिंसा, ताकत और विनाश का प्रतीक है। मुराकामी के लिए, यह उसकी पहचान और जिम्मेदारी का प्रतीक है। यासु के लिए, यह उसकी ताकत और समाज से बदला लेने का जरिया है। जैसे-जैसे पिस्तौल एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती है, वैसे-वैसे यह और भी ज्यादा अपराधों में शामिल होती जाती है। यह एक अपराध की श्रृंखला प्रतिक्रिया को दर्शाती है, जहाँ एक छोटी सी गलती बड़े पैमाने पर हिंसा को जन्म दे सकती है।
सतो और मुराकामी: अनुभव और जुनून का मेल
फिल्म में मुराकामी की मदद करते हैं वरिष्ठ डिटेक्टिव सतो (ताकाशी शिमुरा)। सतो का किरदार अनुभव और संयम का प्रतीक है। वह मुराकामी के जुनून और हताशा को समझता है, लेकिन उसे शांत और स्थिर रहने की सलाह देता है। सतो और मुराकामी की जोड़ी कुरोसावा की कई फिल्मों में दिखती है (जैसे कि सेवेन समुराई में), और यहाँ भी यह जोड़ी बेहद कारगर साबित होती है।
सतो मुराकामी को समझाता है कि दुनिया में अच्छे और बुरे लोग हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सिर्फ एक ‘आवारा कुत्ते’ की तरह भटक रहे होते हैं। वह कहता है, “आवारा कुत्ते को पागल कुत्ते से अलग पहचानना सीखो।” यह डायलॉग फिल्म की मूल भावना को उजागर करता है। यह पुलिस प्रक्रिया में मानवीय समझ का परिचय देता है।
अंतिम टकराव: करुणा की जीत
फिल्म का क्लाइमेक्स बारिश में होता है, जो गर्मी की तपिश के बाद एक शांतिदायक राहत का एहसास दिलाता है। मुराकामी आखिरकार यासु को ढूंढ लेता है, और दोनों के बीच एक जबरदस्त मुठभेड़ होती है। लेकिन यह मुठभेड़ सिर्फ शारीरिक नहीं, बल्कि भावनात्मक भी है।
जब मुराकामी यासु को पकड़ लेता है, तो वह उसे मारता नहीं, बल्कि उसे हिरासत में ले लेता है। और तब, घास के मैदान में बैठकर, दोनों एक-दूसरे की आँखों में देखते हैं। यासु रोने लगता है। यह रोना सिर्फ एक अपराधी की हार का रोना नहीं है। यह एक टूटे हुए इंसान की, एक खोई हुई आत्मा की करुण पुकार है। मुराकामी भी रो पड़ता है। वह यासु के दर्द को महसूस कर पा रहा है। वह समझ जाता है कि अगर उसकी जिंदगी थोड़ी सी भी अलग होती, तो शायद वह भी यासु जैसा ही होता।
यह दृश्य अपराधी और पुलिस के बीच सहानुभूति का क्षण दर्शाता है। यह फिल्म का सबा शक्तिशाली और करुणामयी पल है। कुरोसावा यहाँ साबित करते हैं कि सच्ची जीत हिंसा से नहीं, बल्कि समझ और करुणा से होती है।
विरासत और प्रासंगिकता: आज के संदर्भ में ‘स्ट्रे डॉग’
आज, 70 साल बाद भी, ‘स्ट्रे डॉग’ उतनी ही प्रासंगिक है। आज का समाज भी अलग-अलग तरह की अराजकताओं से गुजर रहा है। आर्थिक असमानता, बेरोजगारी, और मानसिक तनाव ने आज के युवाओं को भी ‘आवारा कुत्तों’ में तब्दील कर दिया है।
फिल्म हमें यह सीख देती है कि किसी भी अपराधी को सिर्फ एक ‘खलनायक’ की तरह देखने के बजाय, उसके पीछे की परिस्थितियों को समझने की कोशिश करनी चाहिए। यह कानून और नैतिकता का दार्शनिक विमर्श पेश करती है। क्या कानून सिर्फ नियमों का पालन है, या फिर उसमें मानवीयता के लिए भी जगह है?
‘स्ट्रे डॉग’ ने आने वाले दशकों की अनगिनत फिल्मों को प्रभावित किया। यह सिर्फ एक जापानी फिल्म नहीं, बल्कि एक वैश्विक सिनेमैटिक क्लासिक है, जो इंसानी भावनाओं और सामाजिक यथार्थ को बेहद करीने से पेश करती है।
निष्कर्ष: वह करुण पुकार जो आज भी गूंजती है
‘स्ट्रे डॉग’ आकीरा कुरोसावा के करियर की वह फिल्म है, जहाँ वह एक महान शिल्पकार से एक महान मानववादी बन जाते हैं। यह फिल्म सिर्फ एक थ्रिलर नहीं, बल्कि एक दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक रचना है। यह एक ऐसी करुण पुकार है, जो कुरोसावा के कैमरे से निकलकर हमारे दिलों तक पहुँच जाती है।
यह फिल्म हमें याद दिलाती है कि हर ‘आवारा कुत्ते’ के पीछे एक इंसान की कहानी छिपी होती है। एक ऐसी कहानी, जो शायद हमारी अपनी कहानी से बहुत अलग नहीं है। कुरोसावा ने इस फिल्म के जरिए युद्धोत्तर जापान की बदहाली को दिखाया, लेकिन साथ ही, उन्होंने मानवता की एक किरण भी दिखाई। उन्होंने दिखाया कि अंधेरे के बाद भी उजाला होता है, और हर ‘आवारा कुत्ते’ के अंदर एक इंसान दबा होता है, जो करुणा और प्यार का भूखा है।
आज के दौर में, जब हमारा समाज तेजी से बदल रहा है और लोग अकेलेपन और निराशा का शिकार हो रहे हैं, ‘स्ट्रे डॉग’ की यह करुण पुकार हमें एक जरूरी संदेश देती है – दूसरों को समझो, उनके दर्द को महसूस करो, और हमेशा करुणा का हाथ बढ़ाओ। क्योंकि, आखिरकार, हम सब इसी समाज के हिस्से हैं, और हम सबमें एक ‘आवारा कुत्ता’ छुपा बैठा है, जो सिर्फ एक घर और थोड़े से प्यार का इंतजार कर रहा है।



