1930s के जमाने में स्पॉट बॉयज़ का जीवन: 5 मुख्य काम जो आज भी नहीं बदले

Movie Nnurture:1930s के जमाने में स्पॉट बॉयज़ का जीवन: 5 मुख्य काम जो आज भी नहीं बदले

सोचिए ज़रा… 1930 का दशक। बॉम्बे टॉकीज़ का ज़माना। सिनेमा घरों में ब्लैक एंड वाइट फिल्मों का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। परदे पर देविका रानी, सुरैया,और के.एल. सहगल अपना जलवा बिखेर रहे हैं। लेकिन उस चमक-दमक के पीछे, सेट के पीछे, एक ऐसी दुनिया हुआ करती थी जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। एक ऐसी दुनिया जहाँ “स्पॉट बॉयज़” नाम के युवा, चंद रुपयों और एक सपने के लिए, फिल्मी दुनिया की नींव के पत्थर हुआ करते थे। आज हम जिसे ‘प्रोडक्शन असिस्टेंट’, ‘रनर’ या ‘सेट बॉय’ कहते हैं, उसकी शुरुआत इन्हीं स्पॉट बॉयज़ से हुई थी। और हैरानी की बात ये है कि उनके कई काम, उनकी ज़िम्मेदारियाँ और उनकी मुश्किलें आज भी बदली नहीं हैं। चलिए, एक सफ़र पर चलते हैं, उस ज़माने की गलियों और स्टूडियो के अंधेरे कोनों में, जहाँ इन बेनाम नायकों की कहानी दफ़्न है।

स्पॉट बॉय कौन थे? एक परिचय

1930 का दशक भारतीय सिनेमा के लिए ‘ट्रांजिशन’ का दौर था। मूक फिल्मों से बोलती फिल्मों की तरफ़ यात्रा। नई तकनीक, नई अपेक्षाएँ, और नई मुश्किलें। ऐसे में, फिल्म निर्माण एक विशाल और जटिल प्रक्रिया बन गई। डायरेक्टर, एक्टर, कैमरामैन तो होते थे, लेकिन सेट पर छोटे-मोटे कामों के लिए हाथों की कमी हमेशा खलती थी। यहीं से जन्म हुआ ‘स्पॉट बॉय’ की अवधारणा का।

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ये ज़्यादातर 15 से 25 साल के युवा होते थे, जो अक्सर गरीब परिवारों से आते थे। उनके पास न तो फॉर्मल एजुकेशन होती थी, न ही कोई खास हुनर। बस होता था तो बस एक जुनून – फिल्मों से जुड़ने का, चाहे वो किसी भी रूप में हो। उन्हें ‘स्पॉट’ इसलिए कहा जाता था क्योंकि उन्हें ‘स्पॉट पर’ यानी तुरंत, फटाफट काम करना होता था। कोई निश्चित वेतन नहीं, कोई स्थायित्व नहीं। बस रोज़ की कमाई, और हाँ, कई बार दिन भर की मेहनत के बाद भी खाली हाथ लौटना। 1930s भारतीय सिनेमा इतिहास का यह एक ऐसा पहलू है जो अक्सर किताबों में छूट जाता है।

1. कॉफ़ी और चाय की आपूर्ति: वो ‘कड़क चाय’ जो आज भी सेट की धड़कन है

पहला और सबसे मशहूर काम – चाय-कॉफ़ी और नाश्ते की सप्लाई। 1930 के दशक में स्पॉट बॉयज़ की पहचान ही एक बड़े बर्तन (अक्सर मिट्टी के घड़े या डेको) के साथ सेट के चक्कर लगाते हुए होती थी। उन्हें सुबह 4-5 बजे ही पहुँचना होता था, चूल्हे पर चाय चढ़ानी होती थी। यह कोई आसान काम नहीं था।

तब कैसे होता था: उस ज़माने में थर्माकॉल या प्लास्टिक के कप नहीं हुआ करते थे। कुल्हड़ या छोटे बर्तनों में चाय दी जाती थी। स्पॉट बॉय को याद रखना होता था कि डायरेक्टर साहब कैसी चाय पसंद करते हैं – कड़क, हल्की, ज़्यादा दूध वाली या कम चीनी वाली? हीरोइन को शायद कॉफ़ी पसंद हो। विलेन साहब शायद बिना चीनी की चाय लें। यह सब उनकी स्मृति में दर्ज रहता था। एक ग़लती, और डाँट पड़ने के साथ-साथ काम जाने का भी डर रहता था। यह काम सिर्फ़ पेय पहुँचाने का नहीं, बल्कि सेट पर रिश्ते बनाने की पहली सीढ़ी था। अच्छी चाय बनाने वाले स्पॉट बॉय को हर कोई पहचानता था और उस पर थोड़ा भरोसा करने लगता था।

आज क्या बदला है: क्या आज भी फिल्म या टीवी सेट पर चाय-कॉफ़ी की अहमियत कम हुई है? बिल्कुल नहीं। आज के ‘प्रोडक्शन असिस्टेंट’ या ‘रनर्स’ का एक बड़ा काम यही होता है। बस साधन बदल गए हैं। आज मशीनी कॉफ़ी, डिस्पोजेबल कप और स्टाफ़ के लिए कैटरिंग की व्यवस्था है। लेकिन डायरेक्टर की पसंद या लीड एक्टर की डाइट का ख़्याल रखना आज भी उतना ही ज़रूरी है। सेट पर मूड बनाने और बिगाड़ने में इस ‘कड़क चाय’ की भूमिका आज भी वही है। यही वह फिल्म इंडस्ट्री की अनकही परंपरा है जो पीढ़ियों से चली आ रही है।

2. संदेशवाहक और ‘रनिंग’ का काम: मोटरसाइकिल नहीं, तेज़ दौड़ने वाले पैर!

1930 के दशक में न तो मोबाइल फोन थे, न वॉकी-टॉकी, न ही ईमेल। संचार का एकमात्र साधन थे – पैदल दौड़ने वाले स्पॉट बॉय। यह उनका दूसरा प्रमुख काम था।

तब कैसे होता था: कल्पना कीजिए, कोलाबा के एक स्टूडियो में शूटिंग चल रही है और डायरेक्टर को मालूम करना है कि दादर में रहने वाले म्यूज़िक डायरेक्टर से कोई संगीत तैयार हुआ या नहीं। कारें महँगी थीं और केवल बड़े सितारों के लिए आरक्षित। ऐसे में एक स्पॉट बॉय को यह संदेश लेकर दौड़ लगानी पड़ती थी। बस, ट्राम या पैदल। उन्हें स्क्रिप्ट के पन्ने एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो तक पहुँचाने होते थे, किसी एक्टर को कॉल शीट देनी होती थी, या फिर प्रोड्यूसर से पैसे लेकर किसी सप्लायर का भुगतान करना होता था। उनकी विश्वसनीयता और गति ही उनकी पूँजी थी। इस काम के लिए उन्हें शहर के छोटे-बड़े रास्तों, गलियों और स्टूडियो की पूरी जानकारी होनी चाहिए थी। यही वो प्रारंभिक बॉलीवुड सहायक थे जो इंडस्ट्री की नसों में खून की तरह दौड़ते थे।

आज क्या बदला है: आज व्हाट्सएप और ईमेल है। लेकिन क्या फ़िज़िकल चीज़ें ले जाने की ज़रूरत ख़त्म हो गई? नहीं। आज भी सेट पर कोस्ट्यूम, प्रॉप्स, महत्वपूर्ण दस्तावेज़, या कैश एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना होता है। मोटरसाइकिल और कारें आ गई हैं, लेकिन ‘रनिंग’ का काम अभी भी उतना ही ज़रूरी है। असिस्टेंट डायरेक्टर या प्रोडक्शन बॉय आज भी शहर भर के चक्कर लगाते हैं। बस अब वो फिल्म सेट के अनकहे नियम जैसे ‘कभी ना न कहना’ और ‘हर हाल में काम पूरा करना’ वही के वही हैं।

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3. एक्स्ट्रा और क्राउड मैनेजमेंट: ‘भीड़ जुटाओ, पर पैसे बचाओ’

1930-40 की फिल्मों में भव्य दृश्य, राजदरबार और सड़क के नज़ारे होते थे। इनके लिए एक्स्ट्रा यानी सहायक कलाकारों की ज़रूरत पड़ती थी। इन्हें जुटाने और मैनेज करने की ज़िम्मेदारी अक्सर अनुभवी स्पॉट बॉयज़ पर ही होती थी।

तब कैसे होता था: स्पॉट बॉयज़ को शहर के उन इलाकों का पता होता था जहाँ दिहाड़ी मज़दूर, बेरोजगार युवा या काम की तलाश में लोग इकट्ठा होते थे। सुबह-सुबह वे उन्हें इकट्ठा करते, स्टूडियो लाते, और सेट पर उनकी लाइन लगवाते। उन्हें यह भी सुनिश्चित करना होता था कि भीड़ नियंत्रण में रहे, कोई शिकायत न करे, और जब तक उनका शॉट न हो जाए, वे वहीं टिके रहें। पैसे कम थे, इसलिए स्पॉट बॉय को कम बजट में ज़्यादा लोग जुटाने का हुनर आना चाहिए था। यह काम बॉलीवुड के पुराने दिनों की कहानियों का एक रोचक हिस्सा है।

आज क्या बदला है: आज एक्स्ट्रा एजेंसियाँ हैं, कास्टिंग डायरेक्टर हैं। लेकिन सेट पर उन सैकड़ों एक्स्ट्रा को व्यवस्थित रखना, उन्हें समय पर मेकअप-वार्डरोब रूम पहुँचाना, और शूटिंग के दौरान उनकी मूवमेंट को कंट्रोल करना – यह काम आज भी प्रोडक्शन टीम के जूनियर सदस्यों पर ही होता है। तब और अब में फर्क सिर्फ इतना है कि तब भीड़ को रिक्शे या पैदल लाया जाता था, आज बसों में। पर जो चुनौती थी – ‘भीड़ को खुश और नियंत्रित रखना’ – वह आज भी बरकरार है।

4. प्रॉप्स और सामान का रख-रखाव: ‘ये तलवार कहाँ रखी थी?’

फिल्म सेट पर हजारों छोटे-बड़े सामान होते हैं – हथियार, गहने, फर्नीचर, कागज़ात। शूटिंग के दौरान इन पर नज़र रखना और ज़रूरत पड़ने पर तुरंत उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती है।

तब कैसे होता था: स्पॉट बॉयज़ को एक तरह से ‘मानव कम्प्यूटर’ की तरह काम करना पड़ता था। उन्हें याद रखना होता था कि हीरो की तलवार किस कोने में रखी है, हीरोइन का रूमाल किसने संभाला है, या फ़ॉगेटिक पिस्तौल कहाँ है। कोई डिजिटल इन्वेंटरी सिस्टम नहीं था। सब कुछ उनकी याददाश्त और एक कॉपी-पेंसिल के भरोसे। इसमें एक भी गलती पूरे शॉट को बर्बाद कर सकती थी और उसकी कीमत उनकी नौकरी से चुकानी पड़ती थी। यह काम फिल्म सेट का अनकहा इतिहास गढ़ रहा था।

आज क्या बदला है: आज प्रॉप्स मैनेजर और उनकी टीम होती है। एक्सेल शीट, बारकोड, डिजिटल कैटलॉग होते हैं। लेकिन सेट के गर्म माहौल में, जब डायरेक्टर चिल्ला रहा हो, “वो लाल किताब कहाँ है जो पिछले सीन में टेबल पर थी?” – तो वही पुरानी दौड़ शुरू हो जाती है। जूनियर टीम के सदस्यों को वह चीज़ ढूंढकर लानी होती है। तकनीक ने रिकॉर्ड रखना आसान बना दिया है, लेकिन फिल्म निर्माण की बुनियादी चुनौतियाँ वही हैं – सामान का प्रबंधन और त्वरित पहुँच।

5. मूड सेटर और ऊर्जा का स्रोत: ‘हौसला बनाए रखो!’

यह शायद सबसे महत्वपूर्ण और ग़ैर-लिखित काम था। शूटिंग लंबी होती थी, 12-14 घंटे के शिफ्ट आम बात थे। थके हुए कलाकारों और तनावग्रस्त निर्देशकों के बीच माहौल को हल्का रखना, ज़रूरत पड़ने पर मदद के लिए हाथ बढ़ाना, और एक सकारात्मक ऊर्जा बनाए रखना – यह सब स्पॉट बॉयज़ के अंदाज़ में शामिल था।

तब कैसे होता था: किसी एक्टर को प्यास लगी है, पानी पहुँचाना। डायरेक्टर का रुमाल गिर गया है, उठा देना। कैमरामैन के लिए स्टूल ले आना। या फिर सिर्फ़ एक मुस्कुराहट के साथ सेवा करते रहना। वे अदृश्य गोंद थे जो सेट के सभी तत्वों को जोड़े रखते थे। कई बार वे गाना गाकर या चुटकुले सुना कर माहौल को हल्का भी करते थे। इसी विश्वास और रिश्ते के दम पर ही कई स्पॉट बॉय आगे चलकर लाइट बॉय, क्लैपर बॉय, यहाँ तक कि असिस्टेंट डायरेक्टर भी बने।

आज क्या बदला है: क्या आज के सेट पर ऊर्जा और मूड की अहमियत कम हुई है? कभी नहीं। आज के प्रोडक्शन कोऑर्डिनेटर या असिस्टेंट का एक बड़ा काम यही है कि सेट का मूड ठीक रखा जाए। स्टार्स को खुश रखना, टीम का मनोबल बनाए रखना आज भी उतना ही ज़रूरी है। सिर्फ़ भाषा बदली है। तब शायद “साहब, चाय लूँ?” कहा जाता था, आज “सर, कुछ लेंगे?” कहा जाता है। पर भावना वही – सेवा और सहयोग की भावना

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निष्कर्ष: बदल गया नाम, पर वही धड़कन

1930 के दशक के स्पॉट बॉयज़ सिर्फ़ मज़दूर नहीं थे, वे भारतीय सिनेमा की नींव के साक्षी और सहयोगी थे। उनकी कहानी संघर्ष, लगन और सपनों की कहानी है। उनके ये पाँचों काम – पेय सेवा, संदेशवाहक, भीड़ प्रबंधन, सामान व्यवस्था और मूड सेटिंग – आज भी किसी न किसी रूप में जारी हैं। बस उनके नाम बदल गए हैं। आज वे ‘प्रोडक्शन टीम’, ‘पीए’, ‘रनर’ या ‘सेट असिस्टेंट’ हैं।

लेकिन आत्मा वही है। वही रात-दिन की मेहनत, वही निश्चितता का अभाव, वही सपने देखने का साहस, और वही इंडस्ट्री के प्रति प्यार। अगली बार जब आप कोई फिल्म देखें, तो क्रेडिट्स में ऊपर-नीचे दौड़ते हुए उन सैकड़ों नामों को देखिएगा। उनमें से कई, आज के स्पॉट बॉयज़ हैं। क्योंकि फिल्म इंडस्ट्री की यात्रा भले ही मूक फिल्मों से VFX तक पहुँच गई हो, लेकिन उसे आगे बढ़ाने वाले पैर अभी भी वही हैं – जो दौड़ते हैं, पसीना बहाते हैं, और सपनों को सच करने की कोशिश में जुटे रहते हैं। 1930 का वह स्पॉट बॉय आज भी ज़िंदा है, बस उसकी वर्दी और उसके साधन बदल गए हैं। और यही सिनेमा की सबसे खूबसूरत निरंतरता है।

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