यक़ीन मानिए, अगर आपने कभी भी किसी पुरानी, धूल भरी अलमारी में रखे फिल्मी पोस्टरों को पलटा हो, तो आपकी नज़र ज़रूर उस तस्वीर पर पड़ी होगी – एक डरावनी, पट्टियों में लिपटी आकृति, जिसकी आँखों में एक अजीब सी खालीपन और जानलेवा चमक है। ये है कार्लॉफ़ नहीं, बल्कि लोन चैनी जूनियर का कलाकार बना “खारिस”, 1944 की यूनिवर्सल स्टूडियोज़ की फिल्म ‘द ममीज़ कर्स’ (The Mummy’s Curse) से। ये फिल्म अक्सर अपने मशहूर पूर्वजों – 1932 के बोरिस कार्लॉफ़ वाले ‘द ममी’ या फिर 1940 के ‘द ममीज़ हैंड’ की छाया में खो जाती है। लेकिन सच कहूँ तो, ये एक ऐसी भूली-बिसरी हॉरर क्लासिक है जिसमें एक अलग ही किस्म का जादू, एक अजीबोग़रीब माहौल और कुछ ऐसे दृश्य हैं जो आपके दिमाग़ में बस जाते हैं, ख़ासकर अगर आप विंटेज हॉरर के शौक़ीन हों या क्लासिक यूनिवर्सल मॉन्स्टर मूवीज़ के दीवाने हों।
पृष्ठभूमि: एक श्रृंखला का पांचवा पड़ाव
इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना ज़रूरी है। ‘द ममीज़ कर्स’ असल में यूनिवर्सल स्टूडियोज़ के “ममी सीरीज़” की चौथी कड़ी थी (हालांकि कहानी के हिसाब से ये पांचवीं थी, एक कॉमिक बुक एडाप्टेशन भी था)। 1940 के बाद से, यूनिवर्सल ने अपने डरावने दैत्यों – ड्रैकुला, फ्रैंकनस्टीन के दैत्य, वुल्फमैन और ममी को जल्दी-जल्दी सीक्वल्स में झोंक दिया था। ये फिल्में अक्सर कम बजट में जल्दी बनाई जाती थीं, कहानी में दोहराव होता था, लेकिन फिर भी उनमें एक ख़ास तरह का B-मूवी चार्म था। ‘द ममीज़ कर्स’ भी उसी फॉर्मूले पर बनी थी। दिलचस्प बात ये है कि ये फिल्म ‘द ममीज़ घोस्ट’ (1944) के ठीक बाद आई थी, लेकिन इसकी कहानी में एक अजीब सा उलटफेर है – अब कहानी लुइज़ियाना के दलदलों में शिफ्ट हो गई है, न कि न्यू इंग्लैंड के मैपलटन जैसे कस्बे में! ये बदलाव क्यों हुआ, ये तो शायद प्रोडक्शन डायरी ही जाने, लेकिन इसने फिल्म को एक अलग ही, थोड़ा सराबोर और अजीब माहौल दे दिया।
कहानी: दलदल में डूबा हुआ शाप
फिल्म की शुरुआत ही एक मज़ेदार विरोधाभास से होती है। लुइज़ियाना के “मारिस कैनाल” के आसपास के इलाके में एक बांध बन रहा है। स्थानीय लोग इस बात से डरे हुए हैं कि इस कैनाल के दलदल में कोई प्राचीन मिस्र की बुरी आत्मा रहती है, जिसने पिछले कई लोगों की जान ली है। वहीं, बॉस्टन के स्कैराम आर्कियोलॉजिकल सोसाइटी के दो प्रतिनिधि, डॉ. जेम्स हैल्सी (डेनिस मूर) और डॉ. इल्ज़ोर ज़ंदाब (पीटर कोए), वहां पहुंचते हैं। उनका मक़सद है – वो दो ममियां ढूंढना जो 25 साल पहले उसी इलाके में ग़ायब हो गई थीं: राजकुमारी अनानखा और उसका पागल प्रेमी, ममी खारिस। उनके साथ है एक फ्रांसीसी-कैजुन कलाकार, पगान, जिसका एक मासूम सा दिमाग़ है और जो स्थानीय किस्से-कहानियों का जानकार है।
यहाँ से फिल्म अपनी रफ़्तार पकड़ती है। बांध बनाने वाले मज़दूरों में एक अजीब सी हताशा फैलती है, रहस्यमयी हत्याएं होने लगती हैं। और फिर, दलदल की कीचड़ से धीरे-धीरे बाहर निकलती है… राजकुमारी अनानखा (वर्जीनिया क्रिस्टीन)! हाँ, वही जिसे मिस्र की मिट्टी में दफ़्न होना चाहिए था, लेकिन वो अमेरिकी दलदल से निकल आई है, जैसे कोई भूला हुआ ख़ज़ाना। उसकी याददाश्त जा चुकी है, वो एक ख़ौफ़ज़दा, भटकी हुई औरत की तरह है। पगान उसे ढूंढ लेता है और उसे एक पास के मठ में ले जाता है। लेकिन अनानखा केवल अकेली नहीं उभरी है। उसके पीछे-पीछे, अपनी पट्टियों में लिपटा, उसी दलदल से निकल आया है खारिस (लोन चैनी जूनियर)। उसका एक ही मक़सद है – अपनी प्रेयसी अनानखा को ढूंढना और उसे फिर से प्राचीन मिस्र के देवता “क्लना” के सामने बलि चढ़ाना, ताकि वो खुद फिर से जीवित हो सके। यहाँ से शुरू होता है खारिस का ख़ूनी कहर और अनानखा को बचाने की कोशिशें।
खारिस: लोन चैनी जूनियर का अलग अंदाज़
बोरिस कार्लॉफ़ का इम्होतेप (1932 की ममी) एक शांत, सम्मोहक, बुद्धिमान और शातिर खलनायक था, जिसकी आँखों में एक अद्भुत ताक़त थी। लोन चैनी जूनियर का खारिस इससे बिल्कुल अलग है। चैनी, जो उस वक़्त वुल्फमैन लॉरेंस टैलबोट के किरदार के लिए मशहूर थे, ने खारिस को एक अधिक पशुवत, शारीरिक और दर्द से भरा हुआ राक्षस बनाया है। उसकी चाल में भारीपन है, उसके हाथ हमेशा आगे की तरफ फैले रहते हैं, जैसे वो किसी चीज़ को टटोल रहा हो या पकड़ना चाह रहा हो। उसकी आँखों में कार्लॉफ़ वाली सम्मोहक चमक नहीं, बल्कि एक पीड़ा, हताशा और जानवरों जैसा गुस्सा झलकता है। चैनी का भौतिक अभिनय यहाँ उभर कर आता है – उसकी हर मुद्रा, हर धीमी, दर्द भरी चाल, हर हाथ का हिलना उस दैत्य की मानसिक और शारीरिक पीड़ा को दर्शाता है जो सदियों से ज़िंदा है, लेकिन कभी शांति नहीं पा सका। ये एक दुखी राक्षस की छवि है, न कि एक शातिर साज़िशकर्ता की। यही इस किरदार की ख़ासियत और कमज़ोरी दोनों है। वो डरावना तो है, लेकिन कभी-कभी दया के क़ाबिल भी लगता है, ख़ासकर जब वो अनानखा के नाम को हांफता हुआ बुलाता है। ये लोन चैनी का अनूठा ममी अवतार है, जो कार्लॉफ़ की नकल नहीं करता।
राजकुमारी अनानखा: वर्जीनिया क्रिस्टीन की अविस्मरणीय छवि
अगर ‘द ममीज़ कर्स’ को किसी एक चीज़ के लिए याद किया जाना चाहिए, तो वो है वर्जीनिया क्रिस्टीन द्वारा निभाया गया राजकुमारी अनानखा का किरदार। ये शायद पूरी यूनिवर्सल ममी सीरीज़ का सबसे मार्मिक और डरावना चरित्र है। जब वो कीचड़ से निकलती है – उसका चेहरा मिट्टी से सना हुआ, उसकी आँखें खाली और भटकी हुई, उसके कपड़े फटे हुए – तो ये दृश्य एकदम अनजाने में बन गया हॉरर आइकन बन जाता है। ये दृश्य इतना प्रभावशाली और विचित्र है कि वक़्त के साथ और भी डरावना लगने लगता है। क्रिस्टीन ने अनानखा को सिर्फ़ एक डरावनी आत्मा नहीं बनाया; उन्होंने उसे एक गहरी उदासी, भटकाव और मासूमियत से भरा हुआ किरदार दिया है। जब वो अपना नाम भूली हुई है, जब वो पुरानी मिस्र की भाषा में बात करती है, जब उसे अपनी ही छवि से डर लगता है, या जब खारिस उसे पुकारता है तो वो सिहर उठती है – ये सब पल क्रिस्टीन के अभिनय से जीवंत हो उठते हैं। वो एक ऐसी आत्मा है जो न तो पूरी तरह जीवित है, न मरी हुई; वो अपनी ही देह और अपने अतीत में फँसी हुई है। ये एक प्रेतात्मा की मानवीय पीड़ा का बेहतरीन चित्रण है। क्रिस्टीन का ये रोल उन्हें हॉरर सिनेमा के इतिहास में एक ख़ास मुक़ाम देता है।
माहौल और डिज़ाइन: दलदल का भूतिया संसार
जैसा कि पहले कहा, लुइज़ियाना का दलदल इस फिल्म को एक अलग ही रंग देता है। यूनिवर्सल के पास हमेशा वातावरण बनाने का हुनर रहा है, और ‘द ममीज़ कर्स’ में भी ये दिखता है, भले ही बजट कम हो। स्टूडियो सेट पर बने दलदल, झाड़ियाँ, मोटे पेड़ और कोहरा एक सपनों जैसा, लेकिन डरावना माहौल बनाते हैं। ये जगह न्यू इंग्लैंड के पुराने घरों या मिस्र के मक़बरों जितनी शानदार तो नहीं, लेकिन इसकी अपनी एक नमी भरी, दबी हुई और ख़तरनाक ख़ूबी है। यहाँ का कोहरा सिर्फ़ दृश्य नहीं है, बल्कि एक किरदार की तरह है, जो खारिस के आने का संकेत देता है। खारिस का मेकअप भी ध्यान देने लायक है। ये कार्लॉफ़ के मेकअप जैसा परिष्कृत नहीं है, बल्कि ज़्यादा जर्जर, कीचड़ से सना हुआ और जानवरों जैसा लगता है, जो उसके दलदल में रहने के सालों के अनुरूप है। मठ के अंदरूनी दृश्यों में भी एक सन्नाटा और पुरानेपन का एहसास है।
कमज़ोरियाँ: जल्दबाज़ी के निशान
इसमें कोई शक नहीं कि ‘द ममीज़ कर्स’ में कई कमियाँ हैं, जो ज़्यादातर उस वक़्त की तेज़ रफ़्तार, कम बजट वाली फिल्म निर्माण प्रक्रिया की देन हैं:
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कहानी में उलझन: फिल्म की शुरुआत में कहा जाता है कि घटनाएँ ‘द ममीज़ टोम्ब’ (1942) के 25 साल बाद की हैं, लेकिन ‘द ममीज़ घोस्ट’ (1944) तो उसके ठीक बाद की है! ये एक स्पष्ट विरोधाभास है जिसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया। ये क्रमबद्धता की अनदेखी दर्शाता है।
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प्लॉट होल्स और अजीबोग़रीब पल: कुछ घटनाएँ बिना किसी तार्किक कारण के घटती हैं। जैसे, खारिस कैसे दलदल से बाहर आया? अनानखा की ममी कैसे अचानक एक जवान औरत बन गई? एक सीन में तो एक मज़दूर का शव ग़ायब हो जाता है और फिर कभी उसका ज़िक्र तक नहीं होता! ये स्क्रिप्ट की जल्दबाज़ी दिखाता है।
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दूसरे किरदारों का फीकापन: डेनिस मूर और काय हार्डिंग के किरदार (डॉ. हॉल्टर और डॉ. मैंटन) बहुत ही सपाट और पारंपरिक हैं। वो सिर्फ़ कहानी को आगे बढ़ाने के लिए लगते हैं। उनमें कोई गहराई या याद रखने लायक ख़ूबी नहीं है। ये सहायक पात्रों का अल्प विकास है।
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कभी-कभी फूहड़ डायलॉग: कुछ संवाद बेहद अटपटे और मज़ाकिया लग सकते हैं, ख़ासकर आज के दर्शकों को। जैसे जब कोई चरित्र कहता है कि दलदल ने ममियों को “पचा” लिया होगा, या फिर कुछ भावनात्मक पलों में अचानक से टूटे-फूटे संवाद।
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स्पेशल इफेक्ट्स की सीमाएँ: उस ज़माने के हिसाब से भी, कुछ प्रभाव (जैसे खारिस की आँखों की चमक) थोड़े सस्ते लग सकते हैं। हालांकि, अनानखा का दलदल से निकलना इतना प्रभावशाली है कि बाकी सब कुछ माफ़ हो जाता है।
विरासत और महत्व: एक कल्ट क्लासिक का जन्म
अपनी कमियों के बावजूद, ‘द ममीज़ कर्स’ ने हॉरर सिनेमा पर एक अमिट छाप छोड़ी है, ख़ासकर अपने विचित्र और डरावने माहौल और वर्जीनिया क्रिस्टीन के अविस्मरणीय प्रदर्शन की वजह से।
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अनानखा का उदय: दलदल से निकलने वाला वो दृश्य आज भी विंटेज हॉरर के सबसे शक्तिशाली दृश्यों में गिना जाता है। ये दृश्य फिल्म की सारी कमियों को पीछे छोड़ देता है और उसे एक अलग पहचान देता है। ये हॉरर सिनेमा की एक स्थायी छवि बन गया है।
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दलदल का भूतिया संसार: लुइज़ियाना के दलदल की सेटिंग ने फिल्म को एक ऐसा अजीबोग़रीब मिज़ाज दिया जो दूसरी ममी फिल्मों से अलग था। ये अमेरिकी गॉथिक हॉरर का एक अनोखा नमूना है, जहाँ प्राचीन शाप आधुनिक अमेरिकी परिदृश्य से टकराता है।
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लोन चैनी का अलग खारिस: चैनी के खारिस की पशुवत पीड़ा ने ममी के किरदार को एक नया आयाम दिया। ये कार्लॉफ़ के इम्होतेप की तरह शातिर नहीं था, बल्कि एक दुखी, विकृत प्राणी था, जो अपनी ही भावनाओं का ग़ुलाम था। ये अंदाज़ बाद के कई राक्षसों को प्रभावित कर सकता था।
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कल्ट स्टेटस: अपनी विचित्रता, दोहराव और कुछ बेतुके पलों की वजह से, ‘द ममीज़ कर्स’ ने धीरे-धीरे एक प्यारी सी कल्ट फॉलोइंग बना ली है। जो लोग क्लासिक B-ग्रेड हॉरर पसंद करते हैं, वे इसकी ख़ामियों को भी उसके चार्म का हिस्सा मानने लगते हैं। ये नॉस्टेल्जिया और किट्स का एक प्यारा नमूना बन गई है।
निष्कर्ष: दलदल से निकली हुई एक अजीबोग़रीब मोती
‘द ममीज़ कर्स’ (1944) एक परफेक्ट फिल्म नहीं है। ये अपनी ही सीरीज़ के पहले किस्तों के मुक़ाबले भी कमज़ोर है। इसकी कहानी में गड्ढे हैं, किरदार कभी-कभी फीके लगते हैं, और कुछ दृश्य बेतुके भी हैं। लेकिन फिर भी, ये फिल्म एक अजीबोग़रीब तरीक़े से दिलचस्प और यादगार है। ये अपने अनूठे और डरावने माहौल (वो लुइज़ियाना का दलदल!), वर्जीनिया क्रिस्टीन के राजकुमारी अनानखा के रूप में अविस्मरणीय अभिनय (ख़ासकर वो दलदल से निकलने वाला दृश्य!), और लोन चैनी जूनियर द्वारा दिए गए खारिस के अलग और पीड़ित स्वरूप की वजह से देखने लायक बन जाती है।
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ये फिल्म यूनिवर्सल स्टूडियोज़ के सुनहरे डरावने दौर के अंत के करीब बनी थी। इसमें वो पॉलिश और गहराई तो नहीं है जो कार्लॉफ़ की मूल फिल्म में थी, लेकिन इसमें एक कच्चा, अजीबोग़रीब और कभी-कभी गहरा डरावना अंदाज़ है जो अपनी तरह से मोहित करता है। ये उस दौर की एक जीती-जागती मिसाल है जब स्टूडियो अपने पुराने दैत्यों से आख़िरी पैसा भी निचोड़ना चाहते थे, भले ही कहानी में दम न हो।
अगर आप क्लासिक ब्लैक एंड व्हाइट हॉरर के शौक़ीन हैं, यूनिवर्सल मॉन्स्टर्स के प्रशंसक हैं, या फिर सिर्फ़ एक विचित्र, डरावनी और ऐतिहासिक फिल्म का अनुभव लेना चाहते हैं, तो ‘द ममीज़ कर्स’ आपके लिए है। इसे बिना किसी ऊँची उम्मीद के देखिए, उस ज़माने की B-मूवी मज़े के लिए देखिए। हो सकता है, आपको ये दलदल से निकली हुई एक अजीबोग़रीब मोती जैसी लगे – थोड़ी खुरदरी, थोड़ी अटपटी, लेकिन अपने आप में अनोखी और चमकदार। आख़िरकार, कितनी ही फिल्में हैं जहाँ आपको एक प्राचीन मिस्र की ममी अमेरिकी दलदल में भटकती हुई मिलेगी? यही तो इसका कल्ट क्लासिक करिश्मा है।