भारतीय सिनेमा ने पूरी दुनिया में अपना एक अलग ही रुतबा कायम किया हुआ है। हर दशक में कलाकारों ने अपनी अदाकारी से एक नया आयाम प्रस्तुत किया है।
हम समीक्षा करेंगे एक ऐसी ही अद्भुत फिल्म की, जिसने हिंदी सिनेमा को एक नयी सोच दी…… पाकीज़ा, कभी ना कभी इस फिल्म का नाम सभी ने सुना होगा । यह फिल्म 1972 में रिलीज़ हुयी और फिल्म में मीना कुमारी, राजकुमार, अशोक कुमार और अन्य कलाकारों ने अपनी अदाकारी से कहानी को जीवंत किया। इसकी अदाकारा मीना कुमारी ने बड़ी ही सहजता और मासूमियत के साथ अपने किरदार को निभाया।
पाकीज़ा एक उर्दू शब्द है – जिसका अर्थ होता है स्वच्छ, पवित्र। इसकी कहानी ने हमें यह बताया कि एक तवायफ़ का जीवन बहुत ही जिल्लत भरा होता है। उसको दुनिया एक वस्तु की तरह समझती है और ये भूल जाती है कि वो भी एक इंसान है। जब खुदा ने हमें बनाने में कोई फर्क नहीं किया तो इंसान की क्या बिसात है। हमारी क्षीण सोच एक स्त्री को सिर्फ अपने मनोरंजन का साधन मात्रा समझ बैठती है। हम ये भी भूल जाते हैं कि इंसान की पहचान उसके व्यव्हार से होती है।
कहानी शुरू होती है, लखनऊ शहर की एक तवायफ नरगिस के कोठे के साथ, जो एक मशहूर परिवार के बेटे शहाबुद्दीन से मोहब्बत करती हैं , मगर शहाबुद्दीन के परिवार को ये मोहब्बत मंज़ूर नहीं थी। इस दर्द के साथ नरगिस एक बच्ची को जन्म देकर इस दुनिया से रुख़सत हो जाती है। उस बच्ची की परवरिश नरगिस की बहन ने उसी तवायफ की दुनिया में की। वह छोटी सी बच्ची नृत्य और गायकी के साथ बड़ी होती रही, बेहद खूबसूरत होने के साथ – साथ वह बहुत अच्छी नृतकी भी बनी और उसकी पहचान दुनिया में साहिबजान से होने लगी । पर हमेशा उसके मन में एक ही ख्याल हमेशा आता था कि उसका जीवन एक कटी पतंग और सोने के पिंजरे में कैद एक पंछी की तरह है, जिसको खुशियां सोचने की भी आज़ादी नहीं है। उसके जीवन में जितने भी लोग आये वो उसको सिर्फ एक वस्तु समझते रहे और उसके उस ख्याल को और मजबूती देते रहे। कहा जाता है कि वक्त एक जैसा नहीं रहता, बदलता है। ऐसा ही कुछ साहिबजान के साथ भी हुआ जब उसकी मुलाकात हुयी सलीम अहमद खान के खत से, जिसमे लिखा था कि आपके पैर बहुत खूबसूरत है इनको जमीन पर मत रखना। बस इतनी सी बात साहिबजान के दिल को छू जाती है और उसको मोहब्बत का अहसास होना शुरू हो जाता है।
دل سا ساتھی جب پايا
بے چينی بھی ساتھ ملی
दिलसा साथी जब पाया
बेचैनी भी साथ मिली
दिन बीतते जाते हैं और साहिबजान की मोहब्बत परवान चढ़ती जाती है, फिर एक दिन उसकी मुलाकात अपनी मोहब्बत से हो ही जाती है, जितनी उम्मीद उसको होती है – उतनी ही प्यारी उसकी मोहब्बत है। पहली ही मुलाकात में साहिबजान सलीम की मोहब्बत में पूरी तरह से डूब जाती है। सलीम से उसको इंसान होने का अहसास मिला, जो उसको एक नयी जिंदगी की तरफ ले जा रहा था मगर सलीम के परिवार को साहिबजान से उसका मिलना रास नहीं आ रहा था। इसके बाद सलीम साहिबजान के साथ उस शहर से बहुत दूर चले जाते हैं, मगर साहिबजान की मशहूरियत ने पीछा नहीं छोड़ा। वह जहाँ जाते, बदनामी साथ जाती , इन सब को देखते हुए सलीम ने साहिबजान को पाकीज़ा का एक नया नाम दिया और उनके सामने शादी का प्रस्ताव रखा, जिसको बड़ी ही मासूमियत के साथ साहिबजान ने मना कर दिया क्योकि वो अपनी मोहब्बत को यूं ज़िल्लत भरी जिंदगी नहीं देना चाहती थी और उनको अहसास हो गया कि उनकी पाक मोहब्बत इस समाज की क्षीण सोच के नीचे कहीं दब जाएगी।साहिबजान चुपचाप से फिर से पुरानी जिंदगी में आ जाती हैं और सलीम किसी और से शादी करने का फैसला लेकर वापस घर आ गए।
सलीम अपनी शादी में नृत्य का प्रस्ताव साहिबजान के भेजते हैं जिसको वो बड़ी ही सहजता से स्वीकार कर लेती हैं।
इस फिल्म के डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और राइटर कमाल अमरोही, सिनेमा जगत के परफेक्शनिस्ट, उन्होंने इस फिल्म के जरिये सभी का ध्यान उस जगह केंद्रित किया जिसके बारे में उस ज़माने में तो क्या हम इस ज़माने में भी नहीं सोचना चाहते। कमाल अमरोही ने बहुत ही नजदीकी से हर पहलू को दिखाया है। किस तरह से एक तवायफ पूरा जीवन विरक्ति ( उदासीनता ) के साथ जीती है। मौसम भी बदलते हैं मगर इनका जीवन कभी भी नहीं बदलता। इस फिल्म को बनने में 14 सालों का वक्त लगा।
एक तवायफ (नरगिस) होने के बाद भी उसके जीवन में कुछ सपने अपनी बच्ची को लेकर होते हैं , उस पल वो सिर्फ एक माँ होती है और दूसरी तवायफ ( साहिबजान ), जिसको सिर्फ एक इंसान होने के वो सारे हक़ चाहिए , जिसकी इंसान होने के नाते वो हकदार हैं। उसकी आंखों में भी कुछ सपने पल रहे होते हैं और वो सपने जब हकीकत से रुबरु होते हैं तो वो खुले आसमान में उड़ना चाहती है मगर वो ये भी जानती है कि बदनामी उसको वापस उसी दलदल में डाल देगी।
تم کيا کروگے سن کر مجھ سے ميری کہانی
بے لطف زندگی کے قصے ہيں پھیکے پھیکے
“तुम क्या करोगे सुन कर मुझ से मेरी कहानी
बे लुत्फ़ ज़िन्दगी के क़िस्से हैं फीके फीके”
क्या हम कुछ पल उनको समझ सकते हैं? उनके उस दर्द को महसूस कर सकते हैं? …….. शायद नहीं, पर हम उनको इंसान होने का सम्मान जरूर दे सकते हैं।
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