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Home 1960

आशीर्वाद (1968): एक पिता के वज्र की कहानी

by Sonaley Jain
May 27, 2025
in 1960, Bollywood, Films, Hindi, Indian Cinema, Movie Review, old Films, Top Stories
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Movie Nurture: आशीर्वाद (1968
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कल्पना कीजिए एक घर जहाँ दीवारों पर पुराने चित्र लटके हैं, हवा में हल्की खुशबू है गुलाबजल की, और बैठक में बूझे हुए सिगार की राख जमी है। यह वह दुनिया है जिसमें हृषिकेश मुखर्जी की आशीर्वाद (1968) आपको ले जाती है—एक ऐसी फिल्म जो न सिर्फ़ परिवार के बंधनों की गहराई को छूती है, बल्कि सामाजिक रूढ़ियों और आधुनिकता के बीच की खाई पर भी एक मार्मिक टिप्पणी है। यह फिल्म उस दौर की याद दिलाती है जब बॉलीवुड में “एंटरटेनमेंट” का मतलब सिर्फ़ गाना -नाचना नहीं, बल्कि दर्शकों के दिलों में उतरने वाली कहानियाँ भी होती थीं।

प्लॉट: जब आशीर्वाद एक बोझ बन जाए

कहानी शुरू होती है जोगी ठाकुर (अशोक कुमार) नामक एक व्यक्ति से, जिसकी शादी एक अमीर घराने की लड़की लीला से होती है, ससुर की संपत्ति की देखरेख के लिए जोगी घर जमाई बन जाता है। उसको जब पता चलता है कि उसकी पत्नी के आदेश पर कई गरीबों के घरों को जलाया गया है तो वह कभी ना आने के लिए अपनी पत्नी और प्यारी सी बेरी नीना को छोड़कर मुंबई चला जाता है।

Movie Nurture: आशीर्वाद (1968

वहां पर वह एक पार्क में बच्चों का मनोरंजन करता है, मगर एक हादसा उसे वापस उसके गाँव ले आता है जहाँ पर वह अपने मित्र की बेटी को बचाते हुए जमींदार की हत्या कर देता है। जोगी को जेल हो जाती है, जहाँ उसे एक डॉक्टर बीरेन (संजीव कुमार) मिलता है जो उसे अपने पिता जैसा सम्मान देता है। एक दिन जोगी को पता चलता है कि बीरेन का विवाह उसकी बेटी नीना से होने वाला है, वह दोनों को आशीर्वाद देने की ख्वाईश अपने मन में पालने लगता है। बीरेन के विवाह के दिन ही अपने अच्छे व्यव्हार के कारण जोगी जेल से छूट जाता है और भिखारी बन कर दोनों को आशीर्वाद देता है।

अशोक कुमार: एक किरदार जो पूरी फिल्म पर छा जाता है

अगर आशीर्वाद को एक शब्द में बयाँ करना हो, तो वह है “अशोक कुमार”। उनका अभिनय इस फिल्म की रीढ़ है। जोगी ठाकुर का किरदार निभाना आसान नहीं—एक ऐसा पिता जो अपने प्यार को हमेशा छुपाता है क्योकि उसकी बेटी गुनहगारों से नफरत करती है। वह दृश्य याद कीजिए जब अपने अंतिम समय में जोगी का सामना अपनी बेटी से होता है, अशोक कुमार का चेहरा पत्थर की तरह सख्त हो जाता है, लेकिन आँखों में एक हल्की सी चमक दिखती है—शायद अफसोस की, या फिर अपने फैसले पर खुद से सवाल की। यह वही द्वंद्व है जो उन्हें “मोटीवेशनल स्पीच” वाले विलेन से बचाकर एक मानवीय चरित्र बना देता है।

संजीव कुमार: सादगी जिसमें छुपा है तूफान

संजीव कुमार के लिए बीरेन की भूमिका उनकी शुरुआती फिल्मों में से एक थी, लेकिन उनकी परफॉर्मेंस किसी दिग्गज की तरह है। वह बिना नाटकीयता के एक संघर्षशील बेटे की पीड़ा को दिखाते हैं। खासकर वह सीन जहाँ वह जोगी से कहता है, ” आपका आशीर्वाद मुझे चाहिए, लेकिन मेरी शादी उसी दिन होगी जिस दिन आप जेल से रिहा होंगे।” यह लाइन नहीं, बल्कि उनकी आवाज़ में कंपन दर्शक को झकझोर देता है।

हृषिकेश मुखर्जी का जादू: साधारण में असाधारण ढूँढ़ना

मुखर्जी की खासियत थी कि वह “छोटी” कहानियों को महाकाव्य बना देते थे। आशीर्वाद में कोई बड़े सेट या एक्शन सीन नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के संवाद और रिश्तों की बारीकियाँ हैं।

मुखर्जी यहाँ एक सामाजिक संदेश देते हैं, लेकिन लेक्चरबाज़ी किए बिना। जोगी का परोपकारी होना उस समय के भारत की सच्चाई है, जहाँ बुज़ुर्गों के फैसलों के लिए अपने को कुछ नहीं माना जाता था।

Movie Nurture: आशीर्वाद (1968

संगीत: वसंत देसाई की वह धुन जो दिल में बस जाए

आशीर्वाद का संगीत सुनकर आपको लगेगा जैसे कोई पुराना यादों का बक्सा खुल गया हो। वसंत देसाई के संगीत में भोलेपन की मिठास है। “रेल गाड़ी रेल गाड़ी” गाना सिर्फ़ एक बच्चों का गीत नहीं, बल्कि उस ज़माने की नॉस्टेल्जिया है—जब ट्रेन की आवाज़ भी उत्साह से भर देती थी। ख़ास बात यह है कि यह गाना अशोक कुमार ने गाया, जो उनकी मासूम अदायगी में और भी यादगार बन गया।

विरासत और विद्रोह का टकराव

आशीर्वाद की सबसे बड़ी ताकत है इसकी “ग्रे शेड्स”। यह फिल्म नहीं कहती कि पुरानी पीढ़ी गलत है या नई सही। बल्कि, यह दिखाती है कि हर पीढ़ी अपने समय की उपज होती है। जोगी के लिए, मानवता उसकी निजी खुशी से ऊपर है।

आज के दौर में आशीर्वाद की प्रासंगिकता

1968 में रिलीज़ होने के बावजूद, यह फिल्म आज भी स्पॉट-ऑन लगती है।फिल्म हमें यही सिखाती है कि रिश्तों की डोर नाज़ुक होती है—उसे टूटने से बचाने के लिए कभी-कभी अपने अहं को तोड़ना पड़ता है। शायद इसीलिए आज के दौर में, जहाँ “घर-परिवार” की अवधारणा बदल रही है, आशीर्वाद एक मिरर की तरह काम करती है।

निष्कर्ष: वह फिल्म जो आपके दिल का दरवाज़ा खटखटाएगी

आशीर्वाद सिर्फ़ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक अनुभव है। यह आपको हँसाएगी, रुलाएगी, और शायद अपने परिवार वालों से एक बार फिर बात करने के लिए प्रेरित भी करेगी। अशोक कुमार और संजीव कुमार की जोड़ी, मुखर्जी की सूक्ष्म दिशा, और देसाई के संगीत का जादू—यह फिल्म उन चंद क्लासिक्स में से है जिन्हें देखकर आप महसूस करते हैं कि “कहानी कहने की कला” कभी पुरानी नहीं होती।

Tags: Ashok kumarBollywood 1960sBollywood Golden EraClassic Movie ReviewHindi Movie ReviewOld Bollywood
Sonaley Jain

Sonaley Jain

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