किसी अभिनेता की महानता का पैमाना क्या है? क्या वो हिट फ़िल्में हैं, पुरस्कारों का ढेर, या फिर दर्शकों के दिलों पर छोड़ी गई वो अमिट छाप जो दशकों बाद भी धुंधलाती नहीं? युसुफ़ ख़ान… जिन्हें दुनिया दिलीप कुमार के नाम से जानती है, उनके लिए ये सारे पैमाने छोटे पड़ जाते हैं। वो सिर्फ़ एक सितारे नहीं, एक अनुभूति थे। एक ऐसा जादू जो परदे पर उतर आता था और हमें अपने साथ बहा ले जाता था – उनके दुख में डूबने, उनकी जीत पर खुश होने, उनके संघर्ष से प्रेरणा लेने के लिए। उन्हें ‘ट्रेजडी किंग’ कहा गया, मगर ये उपाधि उनकी विराट प्रतिभा के सामने एक सीमित दायरा महसूस होती है। दिलीप साहब ने जीवन के हर रंग को, हर भाव को, एक अद्वितीय सघनता और सच्चाई के साथ चित्रित किया। उनकी फ़िल्मोग्राफ़ी एक ख़ज़ाना है, लेकिन आज, चलिए डुबकी लगाते हैं उन पाँच अमर फ़िल्मों में जो न सिर्फ़ उनके करियर के शिखर हैं, बल्कि हिंदी सिनेमा में अभिनय की जीवंत परिभाषा बन गईं:
1. देवदास (1955): शब्दों से कहीं ऊपर, एक आत्मा का मौन विलाप
बिमल रॉय की इस कालजयी कृति में दिलीप कुमार का ‘देवदास’ सिर्फ़ एक किरदार नहीं, एक सांस्कृतिक प्रतीक बन गया। शरतचंद्र के उस टूटे हुए नायक को उन्होंने जिस गहराई से जिया, वह अभूतपूर्व था। सुचित्रा सेन की शानदार ‘पारो’ के सामने खड़ा देवदास कमज़ोर नहीं, अत्यंत संवेदनशील था। उसका घमंड, प्यार में मिली चोट से उपजी हताशा, और आत्मघाती पतन की यात्रा – ये सब कुछ दिलीप साहब की आँखों में तैरता रहता था। वो कोठे की बालकनी पर बैठकर पारो को याद करते हुए जो आँसू बहाते थे, वो सिर्फ़ पानी के कतरे नहीं थे। वो एक पूरी सभ्यता के टूटने का शोक था, एक ऐसी आत्मा का चीत्कार जिसने खुद को खो दिया था। उनकी शक्ति थी ‘अंडरप्ले’ में। एक झुकी हुई पलक, हाथ का कंपकंपाता हुआ गिलास, एक लंबी सिसकी… डायलॉग से कहीं ज़्यादा बोलते थे उनके ये मौन क्षण। ‘देवदास’ ने सिखाया कि दुख भी कैनवास पर उकेरा जाने वाला एक उच्च कला रूप हो सकता है, और दिलीप कुमार उसके बेताज बादशाह।
2. नया दौर (1957): मिट्टी की खुशबू और आम आदमी की जिजीविषा
बी.आर. चोपड़ा की ये फ़िल्म दिलीप कुमार की छवि को ज़मीन से जोड़ देती है। यहाँ वो किसी हवेली के मालिक नहीं, बल्कि बिहार की धूल-मिट्टी में सने एक साधारण टोंगा वाले ‘शंभू महतो’ हैं। ये किरदार उन्होंने इतनी सहजता और सत्यनिष्ठा से निभाया कि लगता था कैमरा किसी वास्तविक व्यक्ति की ज़िंदगी को कैद कर रहा है। शंभू की आँखों में छोटा-सा सपना था – अपना टोंगा खरीदकर पत्नी (वैजयंतीमाला) को खुश करने का। फिर आती है ‘प्रोग्रेस’ नाम की बस, उसकी रोज़ी-रोटी के सामने खड़ी हो जाती है। शंभू की लड़ाई सिर्फ़ एक मशीन से नहीं, बल्कि उस निर्मम व्यवस्था से है जो छोटे आदमी को चकनाचूर कर देती है। दिलीप साहब ने शंभू के संघर्ष, उसकी निराशा, उसकी हिम्मत, और आख़िरकार उसकी विजय को जिस हृदयस्पर्शी ढंग से पेश किया, वो दर्शक को अंदर तक झकझोर देता है। ‘साथी हाथ बढ़ाना…’ गीत में उनकी वो नज़रें, जो मुश्किलों के बीच भी एक जिद्दी उम्मीद से चमकती हैं, आज भी हौसला देती हैं। ‘नया दौर’ ये साबित कर गई कि दिलीप कुमार ‘कॉमन मैन’ की आत्मा को भी महानायक का दर्जा दे सकते थे।
3. मुग़ल-ए-आज़म (1960): इश्क़ की जंग में एक शहज़ादे की तक़दीर
के. आसिफ़ के इस भव्य महाकाव्य में दिलीप कुमार का ‘सलीम’ उस विशालता के बीच भी मानवीय भावनाओं का एक जीवंत पुतला था। वो सिर्फ़ एक राजकुमार नहीं थे; वो एक ऐसे प्रेमी थे जिन्होंने सबसे ताक़तवर बादशाह, अपने पिता अकबर (पृथ्वीराज कपूर) के सामने खड़े होकर अपनी मोहब्बत (मधुबाला की अनारकली) का हक़ माँगा। दिलीप साहब के चेहरे पर सलीम का जोश, उसका अदम्य साहस, उसकी जिद, और जब पिता के सामने उसका घमंड चकनाचूर होता है तो उसकी मर्मांतक पीड़ा – ये सब कुछ अविस्मरणीय दृश्यों में ढल गया। ‘प्यार किया तो डरना क्या…’ में उनका अक्खड़पन और अद्भुत आत्मविश्वास हो या ‘ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी वो हसरत जो दिल में दफ़न हो गई…’ में उनकी आँखों का सागर-सा गहरा दर्द – दोनों ही दिलीप कुमार की अभिनय क्षमता के शिखर को छूते हैं। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में उन्होंने दिखाया कि कैसे प्रेम और फ़र्ज़ के बीच फँसे एक इंसान की त्रासदी को जिया जाता है, सिर्फ़ अभिनय नहीं किया जाता।
4. गंगा जमुना (1961): भाई के ख़ून का सवाल, एक मासूम का बदलता चेहरा
ये फ़िल्म ख़ास थी – दिलीप कुमार ने खुद प्रोड्यूस की और उनके भाई नासिर खान ने निर्देशन किया। इसमें वो ‘गंगा’ बने – एक सीधा-सादा, ईमानदार गाँव का लड़का, जिसकी दुनिया तब उजड़ जाती है जब ज़मींदार के ज़ुल्म ने उसके भाई ‘जमुना’ (नासिर खान) को बाग़ी बना दिया और फिर उसकी हत्या कर दी। गंगा का वह मासूम, भोला चेहरा धीरे-धीरे बदले की आग में तपने लगता है। ये आंतरिक परिवर्तन दिलीप साहब ने इतनी तीव्रता और विश्वसनीयता से दिखाया कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं। भाई के लिए उसका प्यार, उसकी मौत पर आया वह पागलपन जैसा ग़ुस्सा, और ज़मींदार के प्रति बढ़ती घृणा – ये सारी भावनाएँ बिना एक शोर मचाए, सिर्फ़ चेहरे के भावों, आँखों की भाषा और शरीर की मुद्रा से व्यक्त होती थीं। ‘दो हंसों का जोड़ा…’ गीत में गंगा की पत्नी (वैजयंतीमाला) को याद करते हुए उसकी टूटन महसूस की जा सकती है। ‘गंगा जमुना’ ये सबक देती है कि एक महान अभिनेता अपने चरित्र के भीतर पूरी एक जीवनगाथा, पूरा एक विश्व समेट सकता है।
5. राम और श्याम (1967): एक ही सिक्के के दो अलग-अलग पहलू
ये फ़िल्म दिलीप कुमार की अभिनय क्षमता की चमक का एक और नायाब नमूना है। जुड़वाँ भाइयों ‘राम’ और ‘श्याम’ की भूमिका। राम डरपोक, सहनशील, मासूमियत से भरा है, तो श्याम बेखौफ़, मस्तमौला और ज़िद्दी। सिर्फ़ कपड़े बदलना काफ़ी नहीं था। दोनों की बॉडी लैंग्वेज, चाल-ढाल, बोलने का लहज़ा, आवाज़ का टोन और यहाँ तक कि आँखों की चमक तक में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ लाना था। और दिलीप साहब ने ये करिश्मा कर दिखाया! जब राम हकलाता हुआ, काँपता हुआ बोलता है, और जब श्याम फुर्तीली चाल से चलता हुआ, तेज़-तर्रार बातें करता है – आप भूल जाते हैं कि ये एक ही आदमी है। फ़िल्म का वो क्लाइमेक्स जहाँ श्याम, राम की पत्नी (वहीदा रहमान) को उसके ससुराल वालों के अत्याचार से बचाने आता है, दिलीप कुमार के ‘एंग्री यंग मैन’ अवतार का जबरदस्त उदाहरण है। ‘राम और श्याम’ ने गवाही दी कि दिलीप कुमार सिर्फ़ दुख के सुल्तान नहीं, बल्कि कॉमेडी टाइमिंग और एक्शन की धमक के भी बादशाह थे, और एक ही फ्रेम में दो विपरीत ध्रुवों को जीना किसे कहते हैं, ये उन्होंने यहीं सिखाया।
क्या बस यही पाँच? मुश्किल सवाल है…
सच पूछो तो दिलीप कुमार की ‘सर्वश्रेष्ठ’ की सूची बनाना हिमालय को थाली में नापने जैसा है। उनकी हर फिल्म एक नया अध्याय खोलती है। क्या याद करें ‘अंदाज़’ (1949) में उस रोमांटिक हीरो को जिसने दिलों को घायल किया? ‘दाग़’ (1952) में शराब के नशे में डूबे उस आदमी का दर्द जो दिल को चीर देता है? ‘आज़ाद’ (1955) का वो जोशीला स्वैशबकलर? ‘मधुमती’ (1958) के रहस्यमय और भावुक डेवन? ‘कोहिनूर’ (1960) के मस्तमौला राजकुमार को? या फिर ‘शक्ति’ (1982) में अमिताभ बच्चन जैसे दिग्गज के सामने भी डटे रहने वाले उस खलनायक की ताक़त को? हर भूमिका में वो कुछ नया गढ़ते थे।
तो फिर क्या था दिलीप कुमार का राज?
वो सिर्फ़ एक्टिंग नहीं करते थे, वो डूब जाते थे। उनके लिए अभिनय बाहरी नकल नहीं, भीतर से अनुभव करने की एक तपस्या थी। वो बोलने से पहले सोचते थे। उनकी ख़ामोशी भी बोलती थी। उनकी एक झलक भी कहानी कह जाती थी। उन्होंने हिंदी सिनेमा में यथार्थवादी अभिनय की बुनियाद रखी। उनकी आँखें कैमरे के लेंस को पार करके सीधे दर्शक की आत्मा में झाँकती थीं, उनके दर्द को समझती थीं, उनकी खुशी में शामिल होती थीं।
दिलीप कुमार सिर्फ़ एक सितारे नहीं थे; वो एक संस्था थे। एक ऐसी विरासत जिसने अभिनय का मतलब बदल दिया। उनकी फ़िल्में मनोरंजन से आगे, जीवन का दर्पण थीं। वो अपने किरदारों के ज़रिए हमारे बीच आकर बस जाते थे। आज भी, जब उनकी कोई फ़िल्म चलती है, तो लगता है वो कहीं दूर नहीं हैं – वो परदे पर जीवित हैं, और उससे भी ज़्यादा, हमारे दिलों की धड़कन में। ये पाँच फ़िल्में उस अद्भुत यात्रा के सिर्फ़ कुछ पड़ाव हैं, जिसका नाम है – दिलीप कुमार। एक ऐसा नाम जो हिंदी सिनेमा के आकाश में सदा एक ध्रुव तारे की तरह टिमटिमाता रहेगा, अभिनय के सफ़र में रोशनी बिखेरता रहेगा। उनकी कला की गूँज कभी ख़ामोश नहीं होगी।