Movie Nurture: पुरानी फिल्मों में दिखाए गए सामाजिक मुद्दे: क्यों आज भी हमारी आँखों में चुभते हैं?

पुरानी फिल्मों में दिखाए गए सामाजिक मुद्दे: क्यों आज भी हमारी आँखों में चुभते हैं?

क्या आपने कभी कोई पुरानी हिंदी फिल्म देखते हुए सोचा है, “अरे! यह तो आज भी वैसा ही है!”? फिर चाहे वो गरीबी का दर्द हो, जाति का भेदभाव हो, औरतों पर होने वाला अत्याचार हो, या फिर भ्रष्टाचार का स्याह चेहरा। 50-60 साल पुरानी फिल्मों में दिखाए गए ये सामाजिक मुद्दे, आश्चर्यजनक रूप से आज भी हमारे आसपास मौजूद हैं।

ये सिर्फ़ पुरानी रीलों पर कैद कहानियाँ नहीं हैं। ये एक ऐसा आईना हैं जो हमें बार-बार याद दिलाता है कि समाज की कुछ जड़ें कितनी गहरी और कितनी मुश्किल से बदलने वाली हैं। आइए, समझते हैं कि क्यों ये पुरानी फिल्में आज भी हमारे दिलों को छूती हैं और दिमाग़ पर सवाल खड़े करती हैं।

1. गरीबी और अमीरी की खाई: आज भी उतनी ही चौड़ी

  • फिल्में याद कीजिए: राज कपूर की ‘श्री 420’ (1955) का वो मशहूर गाना “मेरा जूता है जापानी…” गरीबी में भी खुश रहने की कोशिश दिखाता है। ‘दो बीघा ज़मीन’ (1953) में एक किसान की ज़मीन छीनने की त्रासदी आज भी रुला देती है। ‘मदर इंडिया’ (1957) में गरीब किसानों पर साहूकारों का ज़ुल्म।

  • आज की प्रासंगिकता: क्या आज गाँवों में किसानों की हालत बहुत बदली है? शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों और आलीशान बंगलों का फ़र्क कम हुआ है? महँगाई और बेरोज़गारी का दबाव क्या कम है? गरीबी की चपेट में आज भी करोड़ों लोग हैं। फिल्मों ने जो दिखाया, वो दर्द आज भी वास्तविक है, बस रूप थोड़ा बदला हो सकता है।

Movie Nurture: Shree 420

2. जाति और छुआछूत: पुराने भूत, नए चेहरे

  • फिल्में याद कीजिए: ‘सुजाता’ (1959) सीधे छुआछूत पर चोट करती है। ‘अच्छूत कन्या’ (1936) तो इसी विषय पर बनी थी। ‘धर्मात्मा’ (1975) जैसी फिल्मों में भी जातिगत भेदभाव दिखाया गया।

  • आज की प्रासंगिकता: क्या आज भी शादी-ब्याह में जाति की दीवार नहीं गिरी? क्या गाँवों और कुछ शहरी इलाकों में छुआछूत पूरी तरह ख़त्म हो गई है? आज भी दलितों के साथ भेदभाव, हिंसा की घटनाएँ सुनने को मिलती हैं। जाति आज भी हमारे सामाजिक ताने-बाने में गहराई से बनी हुई है। फिल्मों ने जो समस्या उठाई, उसकी जड़ें अब भी गहरी हैं।

3. महिलाओं के ख़िलाफ़ अत्याचार और उनकी लड़ाई: आज भी जारी है संघर्ष

  • फिल्में याद कीजिए: ‘बंदिनी’ (1963) में कैदी औरत की गरिमा की कहानी। ‘मदर इंडिया’ की राधा का संघर्ष। ‘इंसाफ कौन करेगा’ (1980) जैसी फिल्में बलात्कार और न्याय की लड़ाई दिखाती हैं। दहेज के खिलाफ ‘लाजवंती’ (1958) का विरोध।

  • आज की प्रासंगिकता: क्या दहेज प्रथा ख़त्म हो गई है? क्या घरेलू हिंसा, यौन हिंसा, लैंगिक भेदभाव गायब हो गए हैं? आज भी महिलाएँ सुरक्षा, समान वेतन और बराबरी के अधिकार के लिए लड़ रही हैं। महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा और भेदभाव के मामले आज भी डरावने स्तर पर हैं। पुरानी फिल्मों ने जिन मुद्दों को उठाया, वो आज भी हमारे सामने चुनौती बने हुए हैं।

4. भ्रष्टाचार और सिस्टम की विफलता: सत्ता का चरित्र आज भी वही?

  • फिल्में याद कीजिए: ‘देवदास’ (1955) में भी साहूकार और क़ानून का गलत इस्तेमाल दिखता है। ‘शोले’ (1975) में गब्बर सिंह जैसे खलनायक भी सिस्टम की कमजोरी का फायदा उठाते हैं। ‘अर्ध सत्य’ (1983) तो पुलिस और सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार की काली करवट दिखाने में माहिर है।

  • आज की प्रासंगिकता: क्या भ्रष्टाचार ख़त्म हो गया है? क्या आम आदमी को आज भी न्याय और सरकारी सुविधाएँ पाने के लिए भटकना नहीं पड़ता? क्या सत्ता में बैठे लोगों का दुरुपयोग बंद हो गया है? सिस्टम में पैठा भ्रष्टाचार आज भी एक बड़ी समस्या है। फिल्मों ने जो दिखाया, वो आज भी अखबारों की सुर्खियाँ बनता है।

Movie Nurture: Bandini

5. शिक्षा और सामाजिक जागरूकता की कमी: आज भी एक बड़ी चुनौती

  • फिल्में याद कीजिए: ‘ताराना’ (1951) में गाँव वालों को अंधविश्वास से निकालने की कोशिश। ‘नया दौर’ (1957) में बैलगाड़ी और बस का संघर्ष पुरानी सोच और नए विज्ञान के टकराव को दिखाता है। कई फिल्मों में पढ़े-लिखे नायक अज्ञानता के खिलाफ लड़ते दिखे।

  • आज की प्रासंगिकता: क्या आज भी अंधविश्वास, झाड़-फूंक, नकली खबरों (फेक न्यूज़) का बोलबाला नहीं है? क्या ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में शिक्षा और जागरूकता की कमी नहीं है? साक्षरता बढ़ी है, पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और वैज्ञानिक सोच का अभाव अभी भी बड़ी चुनौती है। फिल्मों में दिखाई गई यह कमी आज भी हमें पीछे खींचती है।

क्यों हैं ये पुरानी फिल्में आज भी प्रासंगिक? असली वजहें:

  1. मूल समस्याएँ बदली नहीं हैं: फिल्मकारों ने जिन सामाजिक बीमारियों की जड़ें पकड़ी थीं – जैसे लालच, सत्ता की भूख, पुरुषसत्ता, जातिगत घमंड, गरीबी के चक्र – वे आज भी हमारे समाज की नसों में दौड़ रही हैं। समस्याएँ सतही तौर पर बदल सकती हैं, लेकिन उनकी जड़ें अक्सर वही रहती हैं।

  2. इंसानी भावनाएँ कालजयी हैं: प्यार, नफरत, ईर्ष्या, लालच, न्याय की चाहत, दर्द, संघर्ष – ये इंसानी भावनाएँ कभी नहीं बदलतीं। पुरानी फिल्में इन भावनाओं को इतने सच्चे ढंग से पेश करती हैं कि वे किसी भी दौर के दर्शक को छू लेती हैं। मदर इंडिया का ममत्व आज भी मारता है।

  3. समाधान अभी भी अधूरे हैं: इन फिल्मों ने जो सवाल उठाए, उनके पूर्ण समाधान अभी तक नहीं मिले हैं। दहेज मृत्यु अब भी होती है, जातिगत हिंसा अब भी होती है, भ्रष्टाचार अब भी फल-फूल रहा है। जब तक समस्या बनी रहेगी, उसे उजागर करने वाली कहानी प्रासंगिक रहेगी।

  4. कहानी कहने का सच्चा अंदाज़: उस ज़माने की फिल्मों में अक्सर भावनात्मक गहराई और सरल कहन होती थी। वे ज़्यादा प्रचार की भाषा नहीं बोलती थीं, बल्कि जीवन के सच को दिल से दिखाती थीं। यही सच्चाई आज भी दर्शकों को जोड़ती है।

  5. याद दिलाने का काम: ये फिल्में हमें एक ऐतिहासिक आईना दिखाती हैं। वे याद दिलाती हैं कि हम कहाँ से आए हैं, किन लड़ाइयों से गुज़रे हैं, और यह भी कि हमें अभी कितनी दूर जाना बाकी है। ये हमें आत्ममुग्ध होने से रोकती हैं।

Movie Nurture: Mother India

निष्कर्ष: सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, सामाजिक दस्तावेज़ हैं ये फिल्में

पुरानी हिंदी फिल्में सिर्फ़ गाने-नाचे और मनोरंजन का ज़रिया नहीं थीं। वे हमारे समाज के साहसी आलोचक और करुणामयी दस्तावेज़कार थीं। उन्होंने उन ज़ख्मों को बेबाकी से दिखाया जिन्हें समाज छिपाना चाहता था।

इन फिल्मों की प्रासंगिकता इस बात का सबूत है कि हमने जितनी प्रगति की है, वह अभी अपर्याप्त है। ये हमें याद दिलाती हैं कि सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया धीमी और जटिल होती है। जाति, लिंग, आर्थिक असमानता और भ्रष्टाचार जैसी चुनौतियाँ अब भी हमारे सामने मुँह बाए खड़ी हैं।

इसलिए, अगली बार जब आप कोई पुरानी फिल्म देखें, और उसमें कोई सामाजिक समस्या दिखे, तो सोचिए:

  • “क्या यह आज पूरी तरह ख़त्म हो गई है?”

  • “आज इसका रूप क्या है?”

  • “मैं इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए क्या कर सकता हूँ?”

ये पुरानी फिल्में सिर्फ़ अतीत की याद नहीं हैं। ये वर्तमान की एक कड़वी, लेकिन ज़रूरी चेतावनी हैं। ये हमें बताती हैं कि जिस बेहतर कल का सपना हमारे पूर्वजों ने देखा था, उसे पूरा करने की जिम्मेदारी अभी भी हमारे कंधों पर है। उन्होंने आईना दिखाया। अब हमारी बारी है कि हम उस आईने में देखें, शर्मिंदा हों या न हों, लेकिन बदलाव की ओर कदम ज़रूर बढ़ाएँ। क्योंकि जब तक ये मुद्दे हैं, तब तक ये पुरानी फिल्में प्रासंगिक बनी रहेंगी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *