बॉलीवुड के स्वर्णिम दौर की बात हो और 1958 का ज़िक्र न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता। यह वह दौर था जब पर्दे पर भावनाओं का सैलाब उमड़ता था, संवाद गूँजते थे और कहानियाँ सीधा दिल से दिल तक का सफर तय करती थीं। ऐसी ही एक मिसाल है बिमल रॉय की महान कृति ‘यहूदी’। आज, जब हम फिल्मों की बात करते हैं तो अक्सर विशेष प्रभाव (VFX) और चकाचौंध में खो जाते हैं, लेकिन ‘यहूदी’ उस जमाने की याद दिलाती है जब कहानी और अदाकारी ही सब कुछ हुआ करती थी। यह सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि इंसानियत, प्रेम, धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक बंधनों पर एक गहरा, मार्मिक प्रहार है।
पृष्ठभूमि: वह समय जब फिल्में सिर्फ मनोरंजन नहीं सबक भी होती थीं
‘यहूदी’ को समझने के लिए 1950 के दशक के भारतीय सिनेमा और समाज को समझना ज़रूरी है। देश आज़ाद हुए अभी एक दशक ही हुआ था। विभाजन की त्रासदी का दर्द अभी ताजा था, और ऐसे में सांप्रदायिक सद्भाव की बात करना एक साहसिक कदम था। बिमल रॉय, जो ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘परिणीता’ और ‘सुजाता’ जैसी मानवीय संवेदनाओं को टटोलने वाली फिल्मों के लिए जाने जाते थे, ने एक बार फिर एक ऐसी कहानी चुनी जो सीधे समाज की नब्ज पर हाथ रखती थी। फिल्म एजरा मीर के उपन्यास ‘यहूदी की लड़की’ पर आधारित है, जिसे स्क्रीन पर जैनुल आबिदीन और नसीम हुसैन ने जादुई रूप दिया।

यह फिल्म प्राचीन रोमन साम्राज्य के दौर की पृष्ठभूमि में सेट है, जहाँ यहूदी समुदाय पर अत्याचार का दौर चल रहा है। लेकिन कहानी का केन्द्र कोई राजनीतिक षड्यंत्र नहीं, बल्कि दो दिलों का वह पवित्र प्रेम है जो धर्म और समाज की दीवारों को तोड़ने का प्रयास करता है।
कहानी का सार: प्रेम बनाम विश्वास की उलझन
कहानी की शुरुआत होती है रोम के एक यहूदी व्यापारी, एज्रा और उनके बेटे एलिजा से। एज्रा का परिवार रोमन अत्याचार से त्रस्त है। एक घटना में, एज्रा के बेटे एलिजा की हत्या कर दी जाती है गवर्नर ब्रूटस के द्वारा और इसके बाद परेशान एज्रा ब्रूटस की बेटी लिडिया को किडनैप कर लेता है और उसका पालन पोषण करता है और उसको हन्ना नाम देता है।
पंद्रह साल बीत जाते हैं और एज्रा एक सफल जौहरी बन जाता है। वहीँ दूसरी ओर रोमन सम्राट अपने बेटे प्रिंस मार्कस (दिलीप कुमार) की शादी ब्रूटस की भतीजी प्रिंसेस ऑक्टिविया (निगार सुल्ताना) से करने के लिए रोम आता है। मगर प्रिंस को यह रिश्ता मंज़ूर नहीं होता। शिकार में घायल हुए है प्रिंस की देखभाल हन्ना करती है और धीरे धीरे दोनों में प्रेम हो जाता है। मगर हन्ना को यह पता होता है कि यह प्रिंस नहीं एक यहूदी है। प्रिंस की सच्चाई हन्ना और मार्कस को जुदा कर देती है।
यहीं पर फिल्म अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचती है। “मैं यहूदी हूँ” – यह डायलॉग सिर्फ एक पंक्ति नहीं, बल्कि समूची फिल्म की आत्मा है। मार्कस का अपनी पहचान पर अटल रहना, हन्ना का अपने प्रेम के प्रति समर्पण, और आखिर में त्रासदी की ओर बढ़ते कदम… यह सब मिलकर एक ऐसा भावनात्मक भूचाल खड़ा करते हैं जो दर्शक को लंबे समय तक झकझोर कर रख देता है।
अभिनय का अद्भुत करिश्मा: जब दिग्गजों ने इतिहास रचा
इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है इसके कलाकारों का शानदार अभिनय। दिलीप कुमार ने मार्कस की भूमिका में जो जादू बिखेरा, वह आज भी अभिनेता के लिए एक मापदंड है। एक ओर जहाँ उनके चेहरे पर प्रेम की मासूमियत है, वहीं दूसरी ओर अपने समुदाय के प्रति दर्द और कर्तव्य की गहरी छाप है। उनकी आँखों में छुपा दर्द, उनके संवाद बोलने का अंदाज़ – सब कुछ एक मिसाल है। “मेरा नाम मार्कस है, और मैं एक यहूदी हूँ” – यह पंक्ति उन्होंने जिस गर्व और दुख के मिश्रण के साथ बोली है, वह अविस्मरणीय है।
और फिर मीना कुमारी हैं। ‘ट्रैजडी क्वीन’ कही जाने वाली मीना कुमारी ने लिडिया की भूमिका में जो अभिव्यक्ति दी है, वह अद्वितीय है। उनका प्रेम विद्रोही है, साहसी है, लेकिन उसमें एक कोमलता भी है। जब वह लिनस के लिए अपना सब कुछ त्यागने को तैयार होती हैं, तो उनके चेहरे पर विश्वास और विवशता का जो भाव होता है, वह सीधा दिल को छू लेता है। दिलीप कुमार और मीना कुमारी की केमिस्ट्री पर्दे पर जादू बिखेरती है। उनके बीच का प्रेम ऊँचाइयों को छूता है, लेकिन एक सामाजिक टकराव में उलझकर रह जाता है।
सोहराब मोदी ने एज्रा की भूमिका में भले ही छोटा स्क्रीन टाइम पाया हो, लेकिन उनकी उपस्थिति ने चरित्र को अविस्मरणीय बना दिया। नज़ीर हुसैन और निगार सुल्ताना ने भी अपने-अपने किरदारों को पूरी ईमानदारी से जिया है।
संगीत: वह धड़कन जो आज भी ज़िंदा है
अगर ‘यहूदी’ का ज़िक्र आए और उसके संगीत की बात न हो, तो बात अधूरी रह जाएगी। शंकर-जयकिशन के संगीत और शैलेंद्र तथा हसरत जयपुरी के बोलों ने इस फिल्म को अमर बना दिया। फिल्म का हर गाना एक क्लासिक है, जो कहानी के भावों को और गहराई से उकेरता है।
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“ये मेरा दीवानापन है” (मुकेश ): यह गाना प्रेम की परिभाषा ही बदल देता है। बोल, संगीत और अदाकारी का अनूठा संगम।
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“दिल में प्यार का तूफान“ (लता मंगेशकर): मीना कुमारी की आवाज़ में लता जी की यह आवाज़ एक ऐसी स्त्री के दिल की गहराइयों को छूती है जो प्रेम और कर्तव्य के बीच फँसी है।
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“आंसू की आग लेके तेरी याद आई“ (हेमंत कुमार और लता मंगेशकर): यह गाना फिल्म की त्रासदी की ओर इशारा करता है। इसकी धुन और बोल दर्द को एक अलग ही शिद्दत से व्यक्त करते हैं।
ये गाने सिर्फ पल भर का मनोरंजन नहीं करते, बल्कि पात्रों के मनोभावों को उजागर करते हैं और कथा को आगे बढ़ाते हैं।
दृश्य शिल्प और निर्देशन: बिमल रॉय की छाप
बिमल रॉय की निर्देशन कला की सबसे बड़ी पहचान थी – सादगी में गहराई। ‘यहूदी’ में भी वही खूबी नज़र आती है। सेट्स, कॉस्ट्यूम्स और सिनेमैटोग्राफी (द्वारका दिवचा द्वारा) उस ऐतिहासिक दौर को प्रामाणिकता के साथ पेश करते हैं, लेकिन कभी भी कहानी और किरदारों पर हावी नहीं होते। निर्देशक का फोकस हमेशा मानवीय भावनाओं और संघर्ष पर बना रहता है। वह दर्शक को पात्रों के इतना करीब ले आते हैं कि उनका दर्द हमारा अपना दर्द लगने लगता है।
फिल्म का अंत बिमल रॉय की साहसिक दृष्टि को दर्शाता है। उन्होंने आसान रास्ता नहीं चुना। एक ऐसा अंत जो त्रासदी में डूबा है, लेकिन उसमें प्रेम की शुद्धता और विश्वास की अडिगता की जीत छुपी है। यह अंत दर्शक को विचलित करता है, सोचने पर मजबूर करता है, और यही किसी भी महान कलाकृति का लक्ष्य होता है।
सामाजिक संदेश: आज के समय में और भी प्रासंगिक
1958 में बनी यह फिल्म आज, 21वीं सदी में, और भी ज़्यादा प्रासंगिक लगती है। एक ऐसे दौर में जब दुनिया धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिक घृणा की आग में झुलस रही है, ‘यहूदी’ एक मशाल की तरह हाथ में थमाए यह संदेश देती है कि इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है। यह फिल्म सिखाती है कि प्रेम किसी जाति, धर्म या देश की सीमाओं में नहीं बँधता। लिनस का अपनी पहचान पर अडिग रहना हमें स्वाभिमान का पाठ पढ़ाता है, तो लिडिया का प्रेम बिना शर्त स्वीकार करना समर्पण की मिसाल पेश करता है।
यह फिल्म धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक न्याय और व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे विषयों को बिना किसी लाग-लपेट के उठाती है। यह स्पष्ट करती है कि अत्याचार चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, मानवीय मूल्यों और प्रेम की भावना उससे हमेशा ऊपर रहती है।
निष्कर्ष: एक अमर क्लासिक जिसे हर पीढ़ी को देखना चाहिए
‘यहूदी’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, एक अनुभव है। यह उस दौर की याद दिलाती है जब फिल्में मनुष्य की आत्मा से जुड़ी हुई होती थीं। दिलीप कुमार और मीना कुमारी के दमदार अभिनय, शंकर-जयकिशन के सुरीले संगीत, और बिमल रॉय के संवेदनशील निर्देशन ने मिलकर एक ऐसी कृति का निर्माण किया जो समय के साथ धुँधली नहीं पड़ी, बल्कि और भी निखर गई।
अगर आप क्लासिक बॉलीवुड सिनेमा के शौकीन हैं, ऐतिहासिक ड्रामा पसंद करते हैं, दिलीप कुमार की यादगार फिल्मों की तलाश में हैं, या फिर मीना कुमारी के बेहतरीन रोल देखना चाहते हैं, तो ‘यहूदी’ आपकी पहली पसंद होनी चाहिए। यह फिल्म उन लोगों के लिए भी एक खजाना है जो पुरानी हिंदी फिल्मों के गाने और ब्लैक एंड वाइट सिनेमा की खूबसूरती को समझते हैं।
आज के दौर में, जब हम ‘कंटेंट’ की भरमार में असल ‘कहानी’ को खोते जा रहे हैं, ‘यहूदी’ जैसी फिल्में हमें याद दिलाती हैं कि असली कला वही है जो दिल को छू जाए, विचारों को झकझोर दे और इंसानियत का पाठ पढ़ा दे। यह फिल्म बॉलीवुड की विरासत का एक ऐसा दस्तावेज है जिसे देखना और समझना हर सिनेप्रेमी के लिए एक अनिवार्य कर्तव्य है। इसे देखिए, और इतिहास, प्रेम और मानवता के उस अद्भुत संगम का गवाह बनिए।

